Shamik Bandopadhyay   (spidey)
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PWC India | RBS | XLRI | Writes for himself
Joined 5 September 2017


PWC India | RBS | XLRI | Writes for himself
Joined 5 September 2017
9 FEB 2022 AT 1:47

तेरी ख्वाहिशों के इन्तेहा के आगे एक जहाँ हूँ,
मैं लाखों सितारों से दूर एक अलग आसमाँ हूँ।


तू बस एक मिसरा है किसी भूली हुई ग़ज़ल का,
मैं मौसीक़ी हूँ, मैं ज़ज्बात हूँ, मैं उर्दू ज़बान हूँ। — % &

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21 DEC 2021 AT 3:37

सस्ते अखबारों में महंगे इश्तेहार कम आते है,
एक मुफ़लिस के साल में त्यौहार कम आते है।

यूँ तो आता ही नहीं कोई इस गरीबखाने में,
जो कुछ मेहमां आते भी है, तो कम आते है।

जो वो नहीं मयस्सर तो दिल जलता है,
उसे देख भी लूँ तो ज़ज्बात कम आते है।

आते है मुझे हुनर इश्क-ओ-ऊलफत के,
पर बहुत ज़्यादा नहीं आते, कम आते है।

एक पुकार से 'साहिर' के हुजूम उठता था,
आते है अब कुछ दोस्त मगर कम आते है।

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25 AUG 2021 AT 3:46

वक्त़-ए-रुखसत कोई मलाल ना रहा,
तुम ऐसे गए के कोई सवाल ना रहा,

ज़िंदगी अब तुझसे क्या वास्ता रखें,
फिर जो दिल लगाएं अब वो हाल ना रहा...

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9 AUG 2021 AT 23:11

मेरे ख़ामोशियों को लफ़्ज़ों का सहारा दे दे,
मैं काग़ज की कश्ती हूं मुझे किनारा दे दे..
और टूट नहीं सकता ऐसा बिखरा हूँ मैं..
साकी ये दर्द-ए-जाम मुझे दोबारा दे दे...

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16 MAR 2021 AT 2:00

मैं उन किताबों में ही अच्छा दिखता हू,
वही जिनमें फिज़ूल इश्क़ के किस्से दोहराए जाते हैं,
उनमें कुछ ठीक ठाक सा लिखा गया हूँ मैं,

और वो तेरे दरख्त पर रखी जो पुरानी सी कॉपी है,
उस के पीछे की ढीली सी पन्नी पर,
सूखे हुए स्याही के धुँधले अक्षरों सा मैं मिलूंगा तुझे,
उनमें भी, जितना बाक़ी हूँ मैं, अच्छा दिखता हूँ...

वक्त बेवक्त पढ़ा कर मुझे, और इस तन्हाई से रिहा कर मुझे,

पर अपनी आँखों से मत देख,
के मैं किसी पुराने मकान के मलबे सा बिखरा हुआ कुछ इस तरह मिलूंगा,
कोई अनजान सा दर्द तेरे नस नस में घुल गया हो जैसे...

कुछ अपने दिल से पढ़ा जो अगर तूने,
मैं आऊँ भी ना समझ, तब भी अच्छा दिखूँगा...

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29 OCT 2020 AT 1:14

अरे उससे मोहब्बत नहीं है, सच में नहीं हैं,
बस उससे बात करता हूँ तो मुस्कुराता ज़्यादा हूँ..

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7 SEP 2020 AT 16:32

जाने कब से इस दश्त-ए-वीरान में लगा हूँ रहने,
कल वो अल्फाज़ थे या बस काग़ज ही जलाये मैंने..

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8 JUL 2020 AT 6:59

कुछ हज़ारों बंध दरवाजों से गुज़रा तो मैं तुझ तक पहुँचा था,
जैसे पत्तों की आर से गुज़रती किरनें जंगल तक पहुँचती है,

मैं ने सोचकर रखा था जिन्हें, संभाला था जिन चिट्ठियों को,
उनको बहा दिया दरिया में, जो दूर समंदर तक पहुँचती हैं।

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11 JUN 2020 AT 1:49

रोज़ बनता है फिर कोई चाहनेवाला तुम्हारा,
रोज़ हममें ये फ़ासला कुछ और बढ़ता है।

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2 JUN 2020 AT 13:32

Coffee with extra sugar on a chilly winter morning..
Memoirs of normal people..
Worn out shirts with her smell..
Kissing on the terrace in the first rain of the monsoon..
The smell of cut lilacs in the room..
First love.. And the last one..

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