निरंतर झेली जाने वाली अवहेलनाएँ,
बार बार हुआ निरादर,
हर एक फैसले पर अस्वीकार्यता की पक्की मुहर,
अंतस के किसी कोने में इन सारे प्रतिमानों का ढेर सा लगता जाता है..
और फिर एक दिन,
जब सहने की क्षमता पराकाष्ठा पार कर अपने चरम को प्राप्त कर जाती है
तब इन्हीं प्रतिमानों के आपसी घर्षण से उत्पन्न होती है चिंगारी 'विद्रोह' की..
कि जिससे सब कुछ फूस सा जल जाता है
जिस प्रकार से लावा पिघलता है धीरे धीरे और
एक दिन में नहीं आती ज्वालामुखी,
उसी प्रकार ये विध्वंस भी शनैः शनैः आता है
वस्तुतः क्रांति महज़ उस नवजात शिशु की भाँति है
जिसका गर्भकाल सदियों लंबा चलता है..
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