इठलाती खिलखिलाती शामों का अंजाम कुछ और था । तेरी राहें गुज़रती तो यहीं से थी , तेरा मुक़द्दर मुक़ाम कुछ और था । दरिया को समझ बैठा माँझी अपने लिए , उस दरिया का पैग़ाम कुछ और था । कि निहारते-निहारते चाँद को भोर हुई , उस चाँद का आसमान तो कुछ और था । समझ बैठे थे तुम जिसे जिंदगी अपनी , मन बहलाने को साज़ो सामान कुछ और था । लूटते-लूटते जिंदगी बीत गयी , छह गज का तेरा इंतजाम कुछ और था ।
तुम्हारे नुस्ख़े , आसान , सब सुलझाते यह दुनियावी मामले , लूटते , भरमाते । याद जब-जब तुम्हारी आती है , सलाह सब साथ ले आती है । गूंजती आवाज तुम्हारी अब भी कानो में , टटोलता-ढूढ़ता मैं खंडहर मकानों में । माफ करना मैं " आप " को " तुम " कहता हूँ अब "मैं " , "तुम" , खुद ही खुद में रहता हूँ ।
काश तुम्हें फिर पाया जा सकता , तुम हो जहाँ , वहाँ जाया जा सकता । तुम गए तो , मैं खो गया हूँ मेरे अंदर , मैं कम हो गया हूँ । काश तुमसे मिला - मिलाया जा सकता , काश मन को भरमाया जा सकता । तुम कहाँ हो , दिखते नही , बादलो के उस पार , या इस पार काश इन बादलो को नीचे बुलाया जा सकता । काश तुम्हे फिर पाया जा सकता ।
ये प्रेम इस लोक भर का नही , कौन मुझे तुमसे अलग कर पायेगा , ये सूरज , ये चाँद , ये धरती , ये अम्बर । साक्षी रहेंगे जनम-जनम भर , वो अग्नि हमें फिर एक कर जाएगी , जब तुम में मैं , और मुझ में तुम होगी ।