Dr. Saurabh Shakya   (©डॉ. सौरभ शाक्य)
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Joined 20 January 2018


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Joined 20 January 2018
5 APR 2022 AT 20:57

बैठा था आज मैं लिखने
तारीफ-ए-हुस्न में ,
कोई नज़्म तुम्हारे लिए।
जब लिखा गुलाब तुम्हें ,
तो गुलिस्ताँ खफ़ा हो गया।
जो लिखा चाँदनी तुम्हें,
तो चाँद खफ़ा हो गया।
हार के सबसे सोचा,
लिख दूँ तुम्हें बस अपना ही,
तो ख़ुदा ही हमसे ख़फा हो गया।

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30 AUG 2021 AT 17:38

Surabh

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28 MAR 2021 AT 18:39

उस एक मुलाकात ने ,
तुमसे हुई पहली बात ने,
असर कुछ ऐसा किया मुझ पे,
अपने मे मस्त-मग्न रहने वाला मैं,
अब तुम्हारी यादों में खोया रहता हूँ,
कटती हैं रातें तारे गिन-गिन कर,
और दिन भर सपने संजोता हूँ।
न जाने वो आँखों का काजल था,
या तुम्हारे होठों की लाली,
जो मुझ पर एक तिलिस्म सा कर गई,
झुका नही ता-उर्म सजदे में जो,
उस काफिर को भी अपना नमाज़ी कर गई।

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28 MAR 2021 AT 18:24


सर्दियों का माहोल कुछ ऐसा होता है,
हर कोई ओढ़ रजाई घर में बैठा होता है,
अब इंसानों की क्या बात करें,
मई-जून में झुलसाने वाला सूरज भी,
जनवरी में धुंध की चादर ओढ़ दुबका रहता है।

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16 JUN 2020 AT 18:57


मत कुरेदिए राख को,
किसी चिंगारी को हवा मिल जाएगी,
बुझ सी गई थी जो अगन,
फिर से ज्वाला बन जाएगी

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16 JUN 2020 AT 18:36


बिखरी-बिखरी हैं जुल्फ़े उनकी ,
के अब हम संवारते जो नहीं।

खुश्क रहने लगे है लब उनके,
के अब हम चूमते जो नहीं।

नासूर हुए ज़ख्म बदन पे उनके,
के अब हम मरहम लगाते जो नहीं।

है दर्द बहुत दिल में उनके,
के अब हम उन्हें अपना कहते जो नहीं।

फिर भी है सुकूं उन्हें बिन हमारे,
क्यों की उन्हे अब हम सताते जो नहीं।

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5 MAY 2020 AT 22:51

बीते चंद दिनों से यूँ थम सी गई है ज़िन्दगी
के गलियां सारी हुईं शून्य सी खाली।
हुआ बंद अपने ही घरों में इंसान,
अब प्रकृति के हाथों में है धरा की कमान।
चाहे इसे विरोध कहो या क्रोध कहो,
किए जो सितम इंसानों ने इस धरा पर
उन सितमों का प्रतिशोध कहो ।

अब न किसी कारखाने का कर्कश शोर कहीं,
न बाज़ारों में इंसानी कोलाहल है,
सदियों बाद हुई इतनी शांत धरा अब,
के सुनाई दे रहा पंछियों का मीठा स्वर है।

थीं मलीन जल धाराएं जो कल तक,
हुआ जल आज उनका निर्मल है।
हो गई थीं लुप्त प्रजातियाँ जो कहीं,
मिला उन्हे भी जीने का नया अवसर है।

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14 NOV 2019 AT 18:57

बचपन में एक ख्वाब था,
मैं जल्दी से बड़ा हो जाऊं,
छूटें ये बंदिशें सारी,
मैं भी स्वतंत्र,आज़ाद हो जाऊं ।
न हो माँ-बापू का पहरा मुझपे,
मैं भी अपनी मन-मर्जी कर पाऊं,
क्या रखा है स्कूल में,
जल्दी से कॉलेज जाने लग जाऊं,
इसी सोच में दिन गुज़रा करते थे ।
नही भाती थी माँ के हाथ की रोटी भी,
बस बाहर खाने की ज़िद रहती थी,
कमा के मैं भी पैसे कुछ ,
आत्म-निर्भर बन जाऊं,
बचपन में बस यही ख्वाब था,
के जल्दी से बड़ा हो जाऊं ।

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27 AUG 2019 AT 8:38


वो भी क्या रात थी,
सुना है आज़ादी की रात थी,
खिंच गई लकीरें कागज़ों पे,
बन गई सरहदें ज़मीनों पे,
चंद हुकमरानों का फैसला,
करोड़ों का नसीब हो गया,
था अखंड भारतर्वष कभी जो,
रात भर में खंड- खंड हो गया।

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27 AUG 2019 AT 8:22

नज़दीकियाँ कुछ इतनी थीं हमारे दरमियाँ,
के फिज़ाएँ भी रुख मोड लिया करती थी,
न जाने कब कैसे,
गलतफहमियाँ कुछ ऐसे घर कर गईं,
के फिज़ाएँ भी दरमियाँ आ फासले कर गई,
अब तो बेरुखी का ये आलम हेै
के घूमते थे जिन गलियों में,
डाल हाथों में हाथ,
वो भी सरहदों सी दुर्गम हो गाईं।

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