हम सुकून ढूंढते रहे यूंही अपनों में,
बस गुमसुम से बेखबर हो कर,
किसी ख़ास शख़्स की तलाश रही उम्र भर।
ढूंढ़ती रही आंखें सोचता रहा मन,
करता ही रह गया प्रयत्न और यतन,
हुआ तो वो ही जो चाहा खुदा ने,
अब कैसे और क्या लड़ूं उस खुदा से,
उम्र ही बीत गई अपनों से उलझते।
ना अब कोई चाह रही, ना ही कोई उम्मीद,
कौन समझेगा दिल की बातें, मन की उम्मीद,
बंद हैं आजकल सबके मन के द्वार।
अपने अपने हो कर भी अपने नहीं रहते,
अज्ञात अपने बन कर भी अज्ञात ही रहते।
अब तो बस अकेले ही रह गए हम,
किस किस पर करें अब और विश्वास,
करेंगे खुद को खुद से ही खुश,
और रहोगे तुम सब भी खुश।
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