इजाज़त हो तो कुछ लकीर मिटा दू,
अब्बू की आखिरी ख़्वाहिश है लाहौर जाने की|
अब्बू बिमार है शायद,
पुराने मांझे से लिपटी,किसी जर्जर इमारत की तरह टूटी एक लटाई लिए कहते है पतंग उड़ाना है,
किसी मक़सूद चाचा की बात करते है...
कहते है पूरे लाहौर में उनसे अच्छी पतंग बनाने वाला ना था|
एक दिन चाँदनी चौक से हरे कागज की चाँद तारो वाली पतंग ला के देदी ,कहा लाहौर से मंगाई है मक़सूद चाचा वाली|
कुछ देर देखते रहे फिर रोते रोते कहने लगे,
मक़सूद चाचा ज़िंदा होते तो पतंग का रंग मज़हबी ना होता,वो कहते थे "ये अासमां हर आजाद पंछी का है,
किसी एक मुल्क एक मज़हब का नही"|
इजाज़त हो तो कुछ लकीर मिटा दू,
अब्बू की आखिरी ख़्वाहिश है लाहौर से इंसानियत की पतंग आजाद अासमां में उड़ाने की....

- संजय मृत्युंजय