मजदूर नहीं,
मजबूर है वो
गलती किया हुआ
बेकसूर है वो,
रोटी को धूप से सेंकता है,
उसके पांव तो छांव में जलते है,
उसको तेरे वादों का क्या,
उसके इरादे तो उसके खाली पेट में पलते है,
थक थक कर थक जाता है वो,तो थोड़ा और वो चलता है
उसकी सारी जिन्दगी थोड़ा को पूरा करने में ढल जाती है
और
एक शाम उसकी लाश पटरी पे पाई जाती है,
और एक बार फिर,
मजबूर की मजबुरियत की घिल्ली उड़ाई जाती है
संसद में ना होती है कोई चर्चा ना कोई सुनवाई,
सिर्फ पढ़ा दी जाती है' आत्मनिर्भरता की चौपाई'।
-