एक मतला दो अशआर ।
तुर्बत को मेरी, मेरे महबूब का दीदार ना हुआ ।
मैं मर कर भी, उसकी वफ़ा का हक़दार ना हुआ ।।
उड़ता हैं मज़ाक इश्क का सरे-आम, इस जहां में ।
समझता ये दस्तूर, मैं इतना समझदार ना हुआ ।।
जिसे जान से ज़्यादा चाहा, जब अपना ना हुआ ।
मेरा जिस्म भी मेरी रूह से, फिर वफ़ादार ना हुआ ।।
- समर्पित सिंह राठौर
-