मुहासरा करने की तैयारी कर बैठे थे
जहां कब से किरायेदार बन बैठे थे
हक जताते जताते ये भी भूल बैठे थे
पहले ही जाने कितने बकायेदार बैठे थे-
ऎक मुकम्मल गज़ल छिपी है
एक दो मतलों की बात नहीं है...
ख़ुमारी है ये बस निगाह की
जाम और बोतलों की बात नहीं है...
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शब्द कम ही गढ़े,भाव बुनते गऎ
जब भी बातें हुईं
लफ्ज़ कम ही पढ़े,अश्क बहते गऎ
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किरदार होता जरूर है
दर्द कोई भी हो
ज़ख्मदार होता जरूर है
और गुनाह कोई भी हो
गुनाहगार होता जरूर है-
जो रोके थे अब तक
जज़्बात लिख दो
जो आए हमारे हिस्से
मुलाकात लिख दो
दिन दोपहरी तो ठीक
मेरे हिस्से में अब अपनी
रात लिख दो
दिन गुजर जायेंगे
मलमास के भी अब
मेरे नाम अब आने वाली
बरसात लिख दो-
फिसलना
वक्त और रिश्ते दोनों का
तुम नही जान पाओगे
गुजरना
सफ़र और ज़िंदगी दोनों का
तुम नहीं जान पाओगे
बिखरना
सपनों और अपनो दोनों का
तुम कभी भी नहीं जान पाओगे
बिछड़ना
बाप और बेटी दोनों का-
जो वक्त गंवाया है
उसका हिसाब भी होगा
इतनों की चाह हो
कुछ रुआब भी होगा
जिसकी पहली पसंद
चाय है ' हयात '
आशिक लाजवाब होगा
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हमें मिलने में थोड़ी देर हुई
साथ तो दूर का है न
प्रेमिका थी या नहीं क्या हुआ
हक़ तो सिंदूर का है न
अंधेरों में मिले तो क्या हुआ
सफ़र तो नूर का है न
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जो बात लबों ने बयां किया
हंसते हंसते हमने खुद को
हर बार तुम्हीं पर फना किया-