4 JUL 2017 AT 1:35

यह अपनों की हसीन दुनिया, बड़ी ज़ालिम है
मुझे मेरे ही अल्फाज़ के लिये चिढ़ाती है,
वही अल्फ़ाज़..
जिनके लिये बाहरी दुनिया माथे पर बैठाती है,
अपने.. 'उन में'.. मुझे ढूँढते हैं
पराये.. 'उन में'.. ख़ुद को खोजते हैं
जो मरासिम होते हैं पुराने
वो तर्क करने लगते हैं, छेड़ने, घेरने लगते हैं
जो अजनबी अनजाने से होते हैं, वो अपने लगते हैं
हर हर्फ़, हर लफ़्ज़ का दर्द, मायना समझते हैं,
आपके लिखे को ख़ुद का आईना समझते हैं,
ख़ैर छोड़ो..यह तो पुराना दस्तूर है,
जो आज भी चालू बदस्तूर है
मैं तो आवारा सा एक शायर हूँ, कहाँ बाज आऊँगा
सिर्फ़ लिखना ही आता है, 'ग़र नहीं लिखूँगा
गोया के.. मर जाऊँगा
कोई पढ़े ना पढ़े, कोई सुने ना सुने
मैं ख़ुद पढ़ता जाऊँगा, ख़ुद ही सुनता जाऊँगा
दाद भी दूँगा, वाह-वाह करता जाऊँगा
क्या हुआ जो नारसिस्ट कह लाऊँगा
पर अपना दिल और न दुखाऊँगा
फ़क़त एक दिन जब..
मेरा गुल भी "गुलज़ार" हो जायेगा
देखना जो आज मेरा अपना मुझसे चिढ़ता है
वही मेरा सबसे बड़ा अपना
मेरा हबीब, मेरा मुरीद हो जायेगा
- साकेत गर्ग

- साकेत गर्ग ’सागा’