Ritu ऋतु   (ritu_merikalam)
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Joined 16 October 2019


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YESTERDAY AT 11:59

खुश रहने के लिए कभी थोड़ा बेवक़ूफ़ बन जाइए ;
समझदार लोग,आख़िरी बार कब खुल के हँसे होंगे!

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12 JUL AT 12:21

Have no address.

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9 JUL AT 12:25

सुनो! तुम अब कभी मत लौटना
मुझे कोई इंतज़ार नहीं,
ना कोई शिकायत है
बस अब ऐसी कोई आदत नहीं
तुम सही थे,मैं ही ग़लत
यही सच है,मान लेना
मैं ही प्रीत रक्षा में हार गई
तुम में कहाँ कोई कमी थी
बस, मुझे मेरे हाल पर छोड़ देना
तुम अब कभी लौट के न आना

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9 JUL AT 12:08



मैंने जितनी भी कविताएँ लिखी
सब खिड़की के अंदर से झाँकते हुए लिखा
रात में बादलों से छिपते चाँद पे लिखा
डूबते हुए सूरज को शाम लिखा,
जितने भी मौसमो पे लिखा सब यही से लिखा ,
सावन पहली बूँदों सी सौंधी सी ख़ुशबू
और पत्तों के चटक हरे रंग पे लिखा ,
पतझड़ में शाख़ाओं से गिरते पत्तों पे भी लिखा
अब जब बसंत का मौसम शीतल बयार
लेकर आयेगा और शाख़ पर नए कोपल उगेंगे
तो फिर से लिखूँगी हरीतिमा के हर रंग को
पर;खिड़की के बाहर से महसूस करके
और अगर ना भी लिख पायी उसपर
तो कविता के बाहर एक कविता जन्म लेगी
जिसे आज तक शायद मैंने कभी नहीं लिखा

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6 JUL AT 13:45

उन हर एक इंसान का
जिन्होंने आपको यहाँ पहुंचाया
जिससे कुछ मिला या ना मिला
पर सबक पाया ज़िन्दगी भर का

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5 JUL AT 15:30

खिड़की से झाँकते चाँद को देखा
मैंने कल रात, बादलों के ओट
से टकटकी लगाकर ,ये क्या!
इतने में सहसा एक उल्लू दिखा
केसरिया सा था कुछ रंग उसका
आँखे जैसे मींची, ओझल हुआ
मैंने कहा, चल सो जा बावड़ी
सपने में विहार रही है तू अबतक
फिर सोने गई जब,आँखें बंद कर,
फिर से दिखा, वो उल्लू केसरिया


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2 JUL AT 13:08

नज़्म: “लफ़्ज़ों का मरहम”

लफ़्ज़ों में ढले जज़्बात,
जो जुबाँ तक कभी आ ना सके…
मसले भी तो बहुत हैं,
हर मोड़ पे जैसे कोई परछाई बन के ।

उन ही उलझनों में से
कुछ नग़मे बन जाते हैं —
कभी धीमे, कभी बेसुरे,
पर सच्चे…

काग़ज़ पे उतरते हैं चुपचाप,
जैसे कोई सिसकी सफ़्हों में छुप जाए।
और मेरी कलम —
हर रोज़, थोड़ी-थोड़ी मरहम बन जाती है,
इन ज़ख़्मों को सँवारती है,
बिना शोर, बिना दवा …

बस यूँ ही —
ज़िंदगी थोड़ी-थोड़ी आसान लगने लगती है।

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30 JUN AT 8:51

सृष्टि ने असुरों के संहार के लिए शक्ति को बुलाया ;
क्यूंकि ‘शक्ति’ अकल्पनीय, कालातीत,ना हारने वाली थी
फिर पता नहीं किस पाशवी ने उसमे प्रेम और करुणा भरी ,
ना हारने वाली स्त्री, अपने इसी गुण से, सबसे हारने लगी ।

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26 JUN AT 9:44

बेख़ौफ़ थी, बेबाक़ थी !
उसे सच कहने की आदत थी ।
ऐसी नस्लें विरल होती हैं ।
जैसे कोई लुप्तप्राय प्रजाति ,
उसे पशु-पाश की नहीं,
मुक्ति -बद्ध की दरकार थी।

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24 JUN AT 9:05

उसकी खोयी हुई एक पायल दहलीज़ पे ही मिली आज ;
खड़ा है सवाली ,देकर जवाब ले जा तू अपनी दूजी साज़ ।

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