"तोड़" के जैसे ही इक फूल को,
मैंने अपने सीने से लगाया,
चुभा एक काँटा मेरे और
उसे मुरझा हुआ सा पाया,
तभी एक सवाल ज़हन में मेरे घिर आया,
कि ज्यादा नजदीकियाँ बढ़ाओगे,
तो हमेशा दुःख ही तो पाओगे,
बताओ अगर दूर ही रहोगे,
फिर खुशबु कैसे अनुभव कर पाओगे?
तो न दूरियाँ ही बढानी हैं,
और न नजदीकियाँ ही,
सबका एक स्थान निश्चित है,
वहीँ से अभिवादन कर जाना है,
प्रकृति का मात्र यही सन्देश,
हमें जन जन तक पहुँचाना है।
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