18 APR 2018 AT 12:30

आज भी पंछियों की तरह घर से निकलेंगे
हम शाम तक लौटने की दुआओं के साथ
कुछ पुरस्कार और तिरस्कार लिए हाथ
आजकल अनदेखा करते हुए गुज़र जाते हैं
हम जिन्दगी को हरदम अब दौड़ते हुये
कभी कभी मन करता है कि बस
बहुत हो गया चलो छोड़ो ये सब
सोचते हैं यहीं हो जाये अब सब खत्म
और क्या! कुछ न रहे न हो कोई गम
कुछ छूट गया पीछे जो हम ना पा सके
कुछ गंतव्य ऐसे रह गए जहाँ ना जा सके
पता नही क्यों, ऐसा क्यों लगने लगता है
भटके हुये लोग हैं हम राही मतवाले से
जाना कहाँ पता नहीं चल रहे बस धुन में
सब कुछ सिमट सा गया है इस 8 से 4 में
वही निकल पड़ते हैं भोर के अंधेरे में
पहुंचते हैं घर फिर अंजान से अंधेरे में
जैसे न किसी को किसी से सरोकार
न ही खुशियों का कोई भी प्रकार
कोई लुत्फ नहीं कोई उफ्फ नहीं
सब जड़ सा हो गया वहीं के वहीं
चलते चलते लगे सब शांत सा है
मानों सब आस पास परछांयिओं सा है
चल रहा है साथ पर अस्तित्व शून्य
न कुछ विलग फिर भी सब कुछ गूण

- © Renu Rathore