ना मराठा, ना बिहारी, ना जाट, ना मद्रासी,
ना उत्तर, ना दक्षिण, हम सब एक भारतीय सनातनी।
भाषा और संस्कृति चाहे कितनी भी विविध हों यहाँ,
शिवाजी का संदेश यही—“सबसे ऊपर भारत महान।”
जो बाँटते हमें भाषा और प्रांत के नाम पर,
उनका गिर चुका है ईमान, मात्र चंद मत के अरमान पर
यह भूमि हर जन की है, ना कोई बड़ा, ना कोई छोटा,
“समान अधिकार, समान सम्मान”—यही हमारा संकल्प गहना।
उठे हर कोना भारत का, गूँजे हर गली, हर द्वार,
हम सब एक ही परिवार—भारत माता का संसार।
ना कोई दीवारें, ना कोई भेदभाव का घाव,
“वसुधैव कुटुम्बकम्” गाए हर गाँव, हर शहर, हर गांव।-
अरे ज़रा ठहरिए,
क्यों यूँ टुकुर-टुकुर झांक रहे हैं?
खिड़कियाँ बदल गईं,
पर आपकी आदतें वही की वही हैं।
कहीं आप वही चमचा तो नहीं,
जो घी निकालते ही
फिर से डब्बे में
बंद कर दिया जाता है?
वाह जनाब,
रास्ते तो सीधे थे,
पर आपके कदम ही
हमेशा गोल-गोल घूमते रहे।
और इल्ज़ाम… रास्तों पर डाल दिया।-
ना जाने कल क्या हो,
ज़िंदगी कब साथ छोड़ दे,
इसलिए चाहता हूँ —
जो आज है, उसमें हम साथ हो लें।
मैंने हमेशा आपका मान रखा,
हर लफ्ज़ में आपका नाम रखा,
पर कभी कभी लगता है —
जैसे मेरा हर कदम एक कसौटी है।
मैंने तो सिर्फ अपनापन माँगा था,
पर मिला जो वो सिर्फ सन्नाटा था
हम तो आज भी वैसे ही है, पर
आप ही अहंकार में आँखें मूंदे बैठे हैं।
काश एक बार फिर
आप मेरे मन को पढ़ पाते
तो समझ जाते, ये मन आज भी
आपका का साथ चाहता है
तो बेवजह यूँ रूठ के न जाते।-
ये रात की खामोशी,
कुछ अनकहा सा बयां कर रही है,
सवेरा होने से पहले,
शायद कोई भूली दुआ टटोल रही है।
आखिर क्यों वो दिन,
अब भी पलकों पे ठहरे रहते हैं,
जिन्हें 'बचपन' कहकर बुलाते थे,
वो ख्वाबों में अक्सर मुस्कुराते रहते हैं।
जब ज़िंदगी, बेफ़िक्र और सीधी थी,
हर मोड़ पे परछाई सी दोस्ती थी,
छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ ढूँढ लेते थे,
हर शाम किसी किस्से में समेट लेते थे।
अब तो बस, तन्हाई ही साथी है,
शोर के बीच ख़ामोशी बाकी है,
सालों गुज़र जाते हैं मुस्कुराने की वजह ढूँढते,
और बचपन... कहीं दिल के कोने में आज भी बाकी है।-
तुम भी कहीं,
हम भी कहीं,
बदला ना वक़्त,
ना बदला यकीं।
कहानी के लफ़्ज़ बदले सही,
पर जज़्बातों का क्या?
आज भी उतना ही है
तुम्हारे लिए मेरे इक़रार सा।
तुम होते…
तो लफ़्ज़ों से पहले,
नज़रें सब कह जातीं,
दिल के अरमाँ शायद
ख़ामोशी में भी मुस्कुरा जाते।-
समय दर समय
बदलता रहा स्वरूप,
आगे तो निकल गया,
पर पीछे छोड़ी कुछ धुँधली छापें अनूप।
उन आँखों को मैं
अब भी तराश रहा हूँ,
अस्वीकृति की परछाइयों में
कभी-कभी खुद को ही तलाश रहा हूँ।
बहुत कुछ मिला,
पर शायद कुछ कमी सी रही,
मगर यहाँ किसे सब कुछ मिला है?
मैंने इसी सोच से मन की उलझन सुलझा ली।
तुम होते तो अच्छा होता,
पर अब लगता है —
तुम नहीं हो, तो शायद और भी अच्छा है,
जो साथ निभा रहे हैं आज,
उन जैसा सच्चा कहाँ कोई सच्चा है।-
वो आसानी से समझ लेते हैं,
जो बस उनके मन में होता है,
पर कभी रुके नहीं ये सोचने को,
कि किसी और का दिल किस सन्नाटे में रोता है।
उनके पास है गुरूर की चादर,
जिसे वो ओढ़कर चलते हैं बेहिसाब,
हमने कई बार शब्दों से खींचा उन्हें,
पर उनका घमंड, हर बार जीत गया ख़िताब।
हमने गुरूर की जगह चुना सब्र का रास्ता,
अंदर ही अंदर बुझते रहे, पर किसी से कुछ ना कहा,
क्योंकि हमने सीखा है— शांति में ताकत है,
और समझदारी की कोई बोली नहीं लगती यहाँ।-
जिन्हें मिला प्यार, वो खुशनसीब कहलाए,
पर जो अधूरे रह गए, वो भी कुछ कम ना पाए।
ये भाव नहीं जो सीमाओं में बंध जाए,
ना ये इनाम जो हर किसी को मिल जाए।
मैं लिखता जाऊं, फिर भी शब्द कम पड़ जाएं,
क्योंकि प्यार की गहराई, कोई कैसे बताए।
रिश्ते बदलते हैं, नाम बदल जाते हैं,
पर प्यार का स्वभाव... कभी नहीं बदलता।-
ऑपरेशन सिंदूर की गूंज थी छाई,
सरहद पर वीरों ने जीत थी पाई।
पर मीडिया में कुछ और ही खेला था,
स्टूडियो में बैठे देशभक्ति का मेला था।
सफलता का सेहरा किसके सिर बांधे,
ये तय करने में बहसों के जाल थे।
एंकरों ने माइक ताने, चेहरे ताने,
अरे भई, टीआरपी के लिए अफवाहें दागे
कोई सरहद पे युद्ध लड़ रहा था,
कोई स्टूडियो में नक्शे बिछा रहा था।
वीरता का तमगा किसे देना है,
इस पर घंटों का प्राइम टाइम चल रहा था।
सेना ने जो कारनामा कर दिखाया,
मीडिया ने उसे भी मुद्दा बनाया।
कभी सरहद पर जाने की बात चली,
पर कैमरे और कुर्सी से उठने की फुर्सत न मिली।
ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का शोर है,
मीडिया में तो बस टीआरपी की दौड़ है।
जो वाकई लौटकर नहीं आए कभी,
उनकी कहानियाँ बस एक हेडलाइन भर है।-
सौर्य और साहस का दीप जलाओ,
सेना का मनोबल ऊँचा उठाओ।
सरहदों पे जो लड़ रहे हैं वीर,
उनकी हिम्मत का तुम संबल बन जाओ।
हमने दशकों से दर्द सहा है,
अब प्रहार प्रचंड ही होगा।
या तो दुश्मन शांत पड़ेगा,
या नक्शे से उसका नाम मिटेगा।
कुछ लोग होंगे जो जाग रहे होंगे,
जब हम चैन से सो रहे होंगे।
उनके परिवार का तुम हाथ थामो,
सेना का तुम मनोबल बढ़ाओ।
युद्ध सेना लड़ेगी सरहद पर,
परिवार लड़ेगा घर की चौखट पर।
सीने पर पत्थर हमने भी रखा था,
जब पापा ने कारगिल में रण लड़ा था।
रन में लड़ेगी सेना अर्जुन-सी,
दुश्मन का अंत तो निश्चित है।
हौसला हमें भी रखना होगा,
जरूरत पड़े तो रण में उतरना होगा।-