फिर ज़बरदस्त कोशिश की थी उनसे नज़र हटाने की मगर,
आज फिर रुस्वा हो कर चले आये...
फिर आज कोशिश की थी की उनकी जुल्फों के खुलने से पहले, हम मदहोश हो जाएँ मगर,
आज फिर रुस्वा हो कर चले आये...
थाम लिया था जिस मंज़र को हमने, उसके छत पे आने पर,
आज फिर उसे भी रुसवा कर चले आये...
चाहा तो बोहोत की उनके मुस्कुराते ही सब कुछ बयान कर दें मगर,
आज फिर रुस्वा हो कर चले आये...
शबनमी रात है, शायद वो साथ हों मेरे और मैं उनका हाथ थामे उन्हें देखता रहूँ मगर,
आज फिर रुस्वा हो कर चले आये...
हम तो अनजान थे, शायद उनको ही खबर हो की हमारे अकेलेपन के बस वही साथी हैं मगर,
आज फिर रुस्वा हो कर चले आये...
ज़्यादा नहीं बस थोड़ी इज़्ज़त, थोड़ी वफ़ा उन्हें चाहने के बदले में मांगी थी, मगर,
आज फिर रुस्वा हो कर चले आये...
वो अब हमारे नहीं हैं, ये ढिंढ़ोरा सर-इ-आम बजा दिया, हमने रोका उन्हें मगर,
आज उन्हें किसी और के साथ झूमते देख, रुस्वा हो कर चले आये....
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