रहबर रूप हैं जिसके अनेकों,
हर रूह में बसता कहीं...
होता है खुदा जर्रे जर्रे में,दिखता
हमें नहीं...
जब इन्तेहा होती है,वनवास
भोगता है राम भी,मगर हौंसलें
हैं देन उसी की,रूकता,हारता
"राम" कहीं नहीं...
कभी कृष्ण बनके आता है,
कहीं कंस को काटता है,इसां
के रूप में आकर प्रभु,संकटों
से उबारता है,
दिन बदलते हैं,इंसान बदलता है,
मगर रूप उस रहबर का,हर रूप
में साथ चलता है,
गौर से खुद में देखो,तुम ही राम,
रहीम तुम ही,महावीर बनो स्वयं
तुम,तुम ही खुदा,तुम इसां
भी खुद ही......Copyright by
Purnima Chhabra Jain@2016
- Jaahnashien