और आज एक अर्से बाद,मेरी कलम से मुलाक़ात हुई,
लगा मानो कई रोज बीत गये,ख़ुद से मेरी बात हुईं।
सोचा कि क्या लिखूँ, हर लम्हें मे ख़ामोशी है,
क्या लिखूँ प्रियतम के बारे में, हाँ ये लाज़मी भी तो है।।
फ़िर लगा, पहले इन उलझे विचारों को सुलझाउ
क्यूं व्यथित है मन, खुद को ये भेद बताऊँ
कितना कुछ करना था,कितना कुछ छूट गया,
निरंतर चलते इन लम्हें में, वक्त ज़रा कुछ रूठ गया ।
एक किताब पढ़ूंगी फुर्सत में,कितने शौक से मैं वो कभी लाई थी,
नए पुराने गाने ढूँढ कर, मैंने अपनी प्लेलिस्ट बनाई थी।
एक धुन थी,जो सीखनी थी मुझे, सज धज, फोटो हजार खींचने थी मुझे ।
योगा करके, ख़ुद को थोड़ा और फिट बनाना था,
और कुछ नया पढके,खुद की क़ाबिलियत को और आज़माना था।
पर क्यूँ हर रोज कुछ नया किया जाए,क्यूँ न कुछ पल शिथिलता से जिया जाये,
हर दिन आता है नित नए सवेरे लेकर,
कल जो कुछ बाकि रह गया था, पूरा करने की उम्मीदें लेकर ।
उन एहसासों को पन्ने पर उकेरना, उन एहसासों में सिमट जाने का,
हाँ अब एक सुकून था दिल में, चुप रह कर भी चीख पाने का ।
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