वो किसान है, जो अन्नदाता है,
वो किसान ही है, जो अपना पेट नहीं भर पाता है;
हर बरसात टुट जाती है छत उसकी,
बादलों को देख फिर भी प्रसन्न हो जाता है;
तुम सो रहे थे कंबल ताने ठंड में,
वो आधी रात,नंगे बदन हल उठाता है;
चलता है दुर तल़क छाले भरे पाँव लेकर,
अपनी लकीरें मिटा, देश की किस्मत सजाता है;
कौड़ियों के भाव बिक जाती है सख्शियत उसकी,
जो हथेलियों को लोहा कर, सोना उगाता है;
हैरान हो किसानों के फाँसी लगा लेने से ?
वो जीते-जी दो गज़ ज़मीन भी कहाँ पाता है !
- Prerna