प्रतिष्ठा  
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Joined 11 January 2018


Joined 11 January 2018
19 JUN 2021 AT 14:34

पूछो ज़रा एक बार खुद से...

कि क्या सच में सुकून से हो तुम?
या बस आडंबरों के धुन में मग्न हो तुम?

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23 FEB 2021 AT 16:30

ऐसा लगता है कि आज हमारे देश में काफी ज़्यादा लोग "संस्कृति" और "धर्म" में फर्क भूलते जा रहे हैं। यहां कइयों को यह लगता है कि धर्म ही संस्कृति है और उसी के आधार पर भारत अभी तक चल रहा है। जहां अंग्रेज़ जाते वक्त कह गए थे भारत कुछ वर्ष भी बिना विभाजित हुए नहीं चल सकता और पाकिस्तान जैसे धर्म प्रधान देश ही आगे बढ़ सकते हैं.... लेकिन आज सात दशक के बाद भी भारत बिना किसी विभाजन के चल रहा तो इसका कारण धर्म नहीं बल्कि भारत की एक "समन्वित संस्कृति" है। काश वे समझ पाते की अगर ऐसा होता तो जैसे पाकिस्तान से बांग्लादेश का जन्म हुआ क्योंकि उन्होंने धर्म को प्रधानता दी न कि संस्कृति को और सोवियत रूस आदि जैसे उदाहरणों से हम देख सकते हैं कि अगर भारत को भी धर्म प्रधान बनाया गया होता या आगे भविष्य में बनाने की कोशिश की गई तो शायद भारत भी कई अलग अलग देशों में बंट जाता या जाएगा। काश वे समझ पाते कि "धर्म" संस्कृति का बस एक छोटा सा हिस्सा है ना कि धर्म ही संस्कृति है और किसी देश को विखंडित होने से बचाने के लिए धर्म पर इतना ज़ोर नहीं बल्कि उस देश की "समन्वित संस्कृति" पर ज़ोर देने की जरूरत है।।

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13 DEC 2020 AT 19:29

कुछ कर पाना तो हमारे वश में नहीं है,
पर इन लम्हों को समेटना, सहेजना और एक
यादों के बस्ते में कैद कर पाना हमारे वश में है...
ताकि जब भी इस बस्ते से एक भी पन्ना निकले तो
हमें एक खूबसूरत और सुहाने सफ़र का एहसास हो
और बस चेहरे पर एक मुस्कुराहट छोड़ जाए।।

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जब रिश्ते बोझ बन जाए तो,
धागे के गाँठ को आज़ाद कर देना चाहिए।

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24 JUN 2020 AT 23:26

कहीं खो सी गई थी वो इस भीड़ में,
उसे तलाशना काफी मुश्किल था इस शोर में।
उसके तलाश में सबका हाल बेहाल था,
शायद सबके कर्मों का ये एक अंजाम था।
वैसे मुश्किल नहीं उसको इतना भी तलाशना,
बस कुछ सवालों के जवाब है खुद से टटोलना।
पूछो ज़रा एक बार खुद से...
कि क्या सच में सुकून से हो तुम?
या बस आडंबरों के धुन में मग्न हो तुम?

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जी चाहता है कुछ घड़ी तुम्हारे साथ बैठूं;
और बातों बातों में तुम्हारे सारे गम छीन लूँ,
जो तुम बचपन में खुद मारके मरहम लगाया करती थी;
मुझे रोता देख कैसे खुद को तुम कोसती थी,
क्यों खुद को तड़पा कर मेरी सारी ख्वाहिशें तुम आज भी पूरी करती हो;
क्यों मुझ पर एक छोटी खरोच देख कर भी तुम सहम जाती हो,
कैसे अपनी सारी खुशियाँ मुझ पर तुम न्योछावर कर देती हो;
मैं खुश रहूँ बस इसीलिए तुम घुट-घुट कर जी लेती हो,
कैसे अपनी ज़िंदगी कि सारी खुशियाँ तुम मुझसे जोड़ लेती हो;
कैसे मेरी कामयाबी को तुम अपना जीने का सहारा बना लेती हो,
ठीक है जिस ख़्वाहिश को तुमने अपने जीने का मकसद बना लिया;
लेकिन उसे पूरा करना मैंने अपना धर्म बना लिया,
लेकिन मेरी ख़्वाहिश तो तब पूरी होगी जब तुम्हे तुम्हारा स्वाभिमान लौटा दूँ;
तुम्हारे इस घुटन भरी वीरान ज़िंदगी को मैं गुलशन बना दूँ,
जी चाहता है कुछ घड़ी तुम्हारे साथ बैठूं;
और बातों बातों में तुम्हारे सारे गम छीन लूँ।।

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नहीं चाहती वो साल का सिर्फ एक दिन जब वो पूजी जाए,

चाहती है बस वो कि ज़िन्दगी भर दो प्यार भरे शब्द और इज़्जत भरी निगाहों से तौली जाए।।

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23 SEP 2019 AT 21:46

सुनो...
तुम खुद को अपने मे ही मशगूल रखो,

और दुनिया को लगने दो कि तुम काफी फा़रिग हो!!

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23 SEP 2019 AT 0:38

तलाश रही थी मैं खुद को उस भीड़ में जिसका मुझसे कोई ताल्लुक़ नहीं था,

फिर इक दिन अचानक वो तलाश मुकम्मल हो गयी जब तौला खुद को अपने ही अतीत के पलड़े से मैंने||

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27 MAY 2019 AT 3:39

चलो कुछ ख़ूबसूरत चीज़ों और प्यारे लम्हों को क़ुर्बान करने से ये तो पता चला कि...

कौन अपना है और कौन पराया...???

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