जब सिद्दत की कलम को वफाई की श्याही मिलने लगी... तब कुछ कागज़ कोरें भी इबादत की नाम जपने लगी... हालांकि उसकी निगाहें जो कभी वफ़ा करती ना थी, वो भी इस दफा मुसाफिर-सौखीन सी बनने लगी...
अब तो बस कागज़ और कलम ही एक साहारा बनती, जिसपे ज़िन्दगी की सच्चाई कायम हो पाती... वरना होंठो पर बिखरी हुई वो मुस्कराहट भी झूटी, और अल्फ़ाज़ों से ज़ाहिर हर इक़रार भी फ़रेबी...