एक अरसा बीत गया है कुछ हुआ नहीं लेखन पे ना स्वप्न ही कोई आया ना सूझे शब्द जेहन में ----------------------------- किस बात की पीडा है ये है कैसा एकाकीपन बस उथल पुथल उलझन है पीडा से भारी मन में ----------------------------- हुआ कोश अकिंचन मेरा मर गये शब्द लगता है क्या छूट गया है आखिर नाता मेरा जीवन से ----------------------------- फ़िर उठे कोई चिंगारी, फ़िर से कोई राख कुरेदे फ़िर से कोई रूप सलोना मेरे मन को झकझोरे फ़िर से मेरे अन्तस में जल उट्ठे दीप्ति कला की फ़िर से शायद खिल उट्ठे नवजीवन इस यौवन में •••••••••••••••••••••••••
तू राग है तू रंग है तू प्रेम का प्रसंग है अनादि तू अनंत है कमादि कोटि नंग है नशे में तू मलंग है गले में भी भुजंग है कपाल भाल सोभती जटा में ठहरी गंग है आलय बर्फ़ विशाल है आसन में सिंह छाल है डमरु की ताल नाचता नटराज बन के काल है गौरा सी सहचरी यहाँ भूतो की बाल टाल है भस्म से करता आरती ये काल महाकाल है
क्या जिन्दगी क्या मौत है दुख रोज क्या सुख रोज क्या हर रोज जीवन एक नया हर रोज मरना एक नया तुम व्यर्थ बातो पर स्वयम् को दोष देना छोड दो सुनो तुम...............
फ़ूलो का जीवन क्या अलग हर रोज का खिलना पुराना हर रोज माली का खिले पुष्पो को आ के तोड जाना तुम बाग के सास्वत नियम पर तरस खाना छोड दो सुनो तुम................
पत्थर चुभेगे राह में हरदम हो ना शायद राह में कोई बिछौना सिंह भी तुमको मिलेगे सघन वन में सिर्फ़ तुमको ना मिलेगा मृग का छौना तुम पथिक हो मार्ग के अवरोध पर बाते बनाना छोड दो.. सुनो तुम.....
जन्म देती माँ की पुकार में संगीत है रोते हुए शिशु में दुलार में संगीत है. गा रही बधाइयों में, ढोलकों की थाप पे सोहर गाती बूढी की मुस्कान में संगीत है.
नदियों की कलरव में, झरनों की झर झर में अमवा में कोयल की कुहुक में संगीत है सावन के झूलों में, बारिश की बूँदों में, नृत्य करते मोर में श्रृंगार का संगीत है
पायल की छन छन में, चूड़ियों की खन खन में विस्मिल की शहनाई में, रीत का संगीत है मीरा की गान में, वीणा के तान में मोहन की बाँसुरी में प्यार का संगीत है
जब दूषित गंगा हो जाए नदिया अंबर में खो जाये जब धरती खो दे उर्वरता जब विफल पड़े हो दुख हन्ता खग गुंजन मन्दित हो जाए मृग दाव धरा से खो जाए किसलय का अंचल सूना हो हर साँस के खातिर रोना हो तब धरती को दुलराने को कानन को फ़िर से सजाने को देखेगा ये संसार सकल गोविंद तुम्हारे आने को
हर गुजरते बरस के साथ खिच जाती है एक लकीर हाँथो पर नही, बल्कि उस चेहरे पर जिसे संवारा ताउम्र पर उम्र का लेख आखिर खिल उठता है बनकर, एक निशानी! एक लकीर! चेहरे के किसी हिस्से में जो बयान करती है इस उम्र तक आने के रास्ते में घटित हुई हर एक कहानी को जिसे सुनकर होता है ताज्जुब कुदरत के बनाये अनोखे सफ़र का और उसकी अनुपम कारीगरी का........