होगा क्या हासिल ख्वाबों के आसमान में भटककर
यह बंद आंखों का बेबुनियाद हवाहवाई सा एक खेल है,
फस्ले बहार मानकर इसे क्यों होता है इंसान इतना खुश
यह तो उसकी ही खुद की हडडियों का रिसावी तेल है,
जमीनी सच्चाई तो हैं ही बेवास्ता हकीकतों में सिमटे हुए
गिनती तो होती है सच हमेशा जोडने में ही बस झौल है।-
वही रास आती है अब तो मुझे बेहद कचौटती थी जो कभी बेदर्द सी तन्हाईयां शायद बुडढिया ही गया हूं मैं।।
सुरीली सरगम से सजे धजे तराने महसूस होते हैं एक कनफोडू तल्ख शोर शायद खुद से ही उकता गया हूं मैं।।-
वो यादों के झुरमुटों में छिपे हुए कुछ अनकहे से फलसफे बहुत याद आया करते हैं,
उनकी आंखें ही हैं पूरे जिस्म की मुकम्मल तस्वीर जिसमें बेजुबान अल्फाज लरज जाया करते हैं।।-
नफरत ने दी हिकारत को पैदाईश अलगावी आंगन में
यकीन नहीं हो पाता है यहां मौजूद आदमियत बेशुमार है,
कातिल करतब कातिलाना सोच के जहर बुझे हैं खंजर
फिजूल देते हैं दिलासा बस मामूली सी ही तो खरपतवार है।
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जानवर की आड में जानवरानापन के खूनी घिनौने खेल
कैसे बतायें कौन जुदा कौन है शरीक कौन इसमें शुमार है,
मातमी सबब तो है बस मातमी की ही लानतें मलानतें
जीने के हक से कर दे बेदखल कैसा ये तूफानी ज्वार है।-
इधर जाना है गैरमुमकिन उधर जाना भी गैरमुनासिब
चौराहा सा बनकर यह जिंदगी असमंजस की शिकार है,
वो रिश्तों की तराजू में तौलते हैं हर एक जज्बात यहां
खलिशभरा बेईत्मिनानिना सबब ही फसलाना पैदावार है,
इंसानी बस्तियों से आदमियत तो हो ही चुकी है नदारद
कैसा वहशियाना जुनूनी नशा है कैसा ये नशीला खुमार है।-
छोडो ये ख्वाबों ख्यालों की हवा हवाई बुनियाद पर टिकी हुई बातें,
चलो कुछ तिनके बटोरकर जमीनी हकीकत में घोंसले बनाते हैं,
अल्फाजी फलसफे उकेरने में हो चुकी है काफी माथापच्ची,
चलो कुछ आदमियत के पुतले खोजकर इंसानी बस्तियां बसाते हैं।-
समझ समझकर समझा देंगे सबको जिंदगी के फलसफे
क्या बियाबान जंगलो को तहजीब सिखायी जा सकती है,
उम्मीदों की इस जमीं पर तामीर किले हैं कितने मजबूत
क्या हवाओ में लहराती हुई बुनियाद बनायी जा सकती है,
सुलझ सुलझकर भी उलझावियत का शिकार हैं उधेडबुनें
शायद पहेली बनकर ही कोई पहेली सुलझाई जा सकती है।-
ऊंचे पहाड भी कराते हैं समुन्दर की गहराई का अंदाजा
खुद में उतरकर भी गहराईयों की थाह पायी जा सकती है,
पैमाईश के लिए गैरजरूरी है पैमाना कुछ मुआमलात में
बरसती आंखो से दर्दीली तकलीफ जतायी जा सकती है,
किताबीपढाकू कब समझते हैं खामोश शिकवे शिकायत
बेखुदी के आलम में तन्हां महफिल सजायी जा सकती है-
उस जमीन पर खडे होकर जो देती है कदमों को बिसात
बेइंतहां बेमुरव्वत चाहत की तालीम पायी जा सकती है,
दूर दूर तक फैले हैं रेत और मिटटी के जमीनी कैनवास
उम्दा ख्यालों की खूबसूरत तस्वीर बनायी जा सकती है,
हवाओं की तासीर में छिपे होते हैं तमाम नगमाई तराने
जिद सवार हो गर फूलो की मुस्कान चुरायी जा सकती है।-