अक्सर, घर के सामने
इस बागीचे में
लैंप पोस्ट के नीचे
बेंच पर, मैं बैठ जाता हूँ
अपनी ही धड़कनें महसूस करता हूँ
तब अपनी ही साँसों से साँसों तक की दूरी
ज़िंदगी सी लगती है
और मौत सी कभी

सोचता हूँ
इस बेंच पर कभी तुम भी हो साथ मेरे
हल्का-हल्का-हल्का उजाला हो
और
मद्धम-मद्धम-मद्धम अंधेरा-
मालूम ना पड़े
है सुबह का उजाला
या शाम का धुंधलका...
और मैं
हैराँ-हैराँ-हैराँ सा
महसूस करता रहूँ
बस ज़िंदगी -
तुम्हारी साँसों से मेरी साँसों तक!

- Piyush Mishra