अतीत के धुंधले पड़े पन्ने
अनचाही यादों के संदूक,
कई अवांछित किस्से और
अनगिनत ऐसे वाक़यात
जिनसे दूर भागता रहता हूं,
रात के तीसरे पहर में
खुद-ब-खुद
जीवित हो उठते हैं
और तैरने लगते हैं
आंखों के गहरे
समंदर में,
पुनर्जीवित हुए ख्याल
खुद को सचेत रखने की
बेजोड़ कोशिश करते हैं,
परिणामस्वरूप
नींद अब तक आंखों को
अलविदा कह चुकी होती है
और नींद के विरह से
व्याकुल आंखें
एकटक छत को
तकती रहतीं हैं...
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