शब्द भी चिताओं की तरह
जल कर धुंआ हो गए हैं ,
जो बच गए वो पानी में
कहीं तैरते मिल जाएंगे
पर फायदा भी क्या है
इन मौन शब्दों का अब,
अनसुना कर देने की फितरत है
ज़्यादा बोलने वालों की
कुछ कहानियां बन के टूट गईं
जो बची हैं सुनाने को वो,
ज़ेहन में ही दफ़न हो गायीं
बची खुची सी सांसे अब
खौफ में ज़िन्दा रहती हैं
की सहारे जो उनके हैं ,
छोड़ न दे हाथ कहीं
कबतक ये सिलसिला चलता रहेगा
मंज़र काले बादलों का घिरता रहेगा
खोल दो खिड़कियों को, मिट जाने दो धुंआ ,
शब्दों को आज़ाद कर दो, आवाज़ दो फिर से यहाँ
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