Nomadic wanderer   (@मोक्ष --)
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कुछ खास नहीं है मुझ में फिर भी ना जाने क्योँ,
भीड़ से हटकर चलना मुझको अच्छा लगता है . .
Joined 15 June 2018


कुछ खास नहीं है मुझ में फिर भी ना जाने क्योँ,
भीड़ से हटकर चलना मुझको अच्छा लगता है . .
Joined 15 June 2018
12 MAY 2022 AT 16:06

लगता है हम अब कभी नहीं मिलेंगे,
पर शायद, हम हमेशा यहीं मिलेंगे..

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21 APR 2022 AT 6:29

"इश्क" इतना भी मुश्किल काम नहीं है,
बस कुछ एक छोटी मोटी ,
कुर्बानियां ही तो करनी पड़ती है,
जी हां, गर मनचाहा इश्क,
हासिल हुआ है तो
उसके सामने हर कुर्बानी,
छोटी ही तो है..

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21 APR 2022 AT 6:25

"काश! एक बार रोक लिया होता"
तेरे जाने के बाद यह लफ्ज़
आंखों से बह निकले.…..

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17 APR 2022 AT 17:23

वह इतवार ही तो था,
जिसका करते थे इंतेज़ार,
पर अब डर लगता है,
लो फिर आ गया इतवार,
खाली दिन देख मानो,
लग जाता है यादों का अंबार,
सैलाब ही तो आता है,
फिर बहा ले जाता है उस पार,
वहीं जहां पर बसता है,
मेरे अतीत का सँसार,
आज फिर लड़ा उन यादों से,
हाँ, आज भी तो था इतवार...

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17 APR 2022 AT 17:12

जिंदगी की जद्दोजहद बस इतनी ही रही
तुम कभी गलत नहीं और मैं कभी सही..

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8 APR 2022 AT 5:13

उसके आगोश में कुछ इस कदर बहके
सारी रात फिर लोबान की तरह महके..

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7 APR 2022 AT 22:11

वह जो ना वाकिफ,
है तेरी खुशबू से,
फकत एक गुल की महक में,
बहक जाते है..

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5 APR 2022 AT 22:39

दिन भर तेरी तलाश में,
भटकते हैं दर बदर,
सांझ ढले बोझिल कदम,
आ रुकते हैं तेरी यादों के दर

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5 MAR 2022 AT 8:32

"वो दूसरा अपना वाला निवाला"

अक्सर देखा था उसे मैंने अपने टिफिन में दाल और सब्जी इकट्ठी डालते हुए और दूसरी मुट्ठी में कुछ रोटियां लेकर अलग जाकर अपने बंकर के बाहर बैठ जाता था, थोड़ी देर तक उस खाने को देखता रहता था, फिर कुछ बुदबुदाते हुए एक निवाला यों तोड़ता था मानो कोई मशक्कत कर रहा हो और वो निवाला मुँह में डालते वक़्त अक्सर उसकी आँखें डबडबा जाती थी। एक दिन मैंने पूंछ ही लिया क्या हुआ साहब खाना अच्छा नही है क्या, आंखों की किनारों पर आई बूंदों को पोंछते हुए हंस कर बोला
ऐसा नहीं है साहब,जब बेटी थी ना, तो "पहला वाला निवाला मेरा होगा" बोलकर हमेशा वही खिलाती है!
फिर मेरी तरफ देखे बिना "वो दूसरा अपना वाला निवाला" बनाने लगा!

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4 MAR 2022 AT 19:44

रात भर आंसुओं से भीगती रही तन्हाई,
अभी सुबह ही तो बाहर तार पे,
सूखने डाली थी कि फिर उसकी यादों की बरसात हो चली,
भीगते भीगते उसको खींचकर अंदर लाया,
और पसरा दिया बान की खुरदुरी खटिया पे,
कुछ जानी पहचानी सी सीलन भरी उमस,
उठकर नथुनो से जा टकराई, शायद उस गलन की थी,
जो रिश्ते में आई दरार में भरे पानी से उठ रही थी,
खोखला ही तो हो चला था वो मजबूत दरख़्त उस रिश्ते का,
जिसको हमने कभी एक नाम दिया था।
आज फिर रात भर आंसुओं से भीगेगी तन्हाई...

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