"इश्क" इतना भी मुश्किल काम नहीं है, बस कुछ एक छोटी मोटी , कुर्बानियां ही तो करनी पड़ती है, जी हां, गर मनचाहा इश्क, हासिल हुआ है तो उसके सामने हर कुर्बानी, छोटी ही तो है..
वह इतवार ही तो था, जिसका करते थे इंतेज़ार, पर अब डर लगता है, लो फिर आ गया इतवार, खाली दिन देख मानो, लग जाता है यादों का अंबार, सैलाब ही तो आता है, फिर बहा ले जाता है उस पार, वहीं जहां पर बसता है, मेरे अतीत का सँसार, आज फिर लड़ा उन यादों से, हाँ, आज भी तो था इतवार...
अक्सर देखा था उसे मैंने अपने टिफिन में दाल और सब्जी इकट्ठी डालते हुए और दूसरी मुट्ठी में कुछ रोटियां लेकर अलग जाकर अपने बंकर के बाहर बैठ जाता था, थोड़ी देर तक उस खाने को देखता रहता था, फिर कुछ बुदबुदाते हुए एक निवाला यों तोड़ता था मानो कोई मशक्कत कर रहा हो और वो निवाला मुँह में डालते वक़्त अक्सर उसकी आँखें डबडबा जाती थी। एक दिन मैंने पूंछ ही लिया क्या हुआ साहब खाना अच्छा नही है क्या, आंखों की किनारों पर आई बूंदों को पोंछते हुए हंस कर बोला ऐसा नहीं है साहब,जब बेटी थी ना, तो "पहला वाला निवाला मेरा होगा" बोलकर हमेशा वही खिलाती है! फिर मेरी तरफ देखे बिना "वो दूसरा अपना वाला निवाला" बनाने लगा!
रात भर आंसुओं से भीगती रही तन्हाई, अभी सुबह ही तो बाहर तार पे, सूखने डाली थी कि फिर उसकी यादों की बरसात हो चली, भीगते भीगते उसको खींचकर अंदर लाया, और पसरा दिया बान की खुरदुरी खटिया पे, कुछ जानी पहचानी सी सीलन भरी उमस, उठकर नथुनो से जा टकराई, शायद उस गलन की थी, जो रिश्ते में आई दरार में भरे पानी से उठ रही थी, खोखला ही तो हो चला था वो मजबूत दरख़्त उस रिश्ते का, जिसको हमने कभी एक नाम दिया था। आज फिर रात भर आंसुओं से भीगेगी तन्हाई...