असफलता बस इतनी सी अधूरी है,
कामयाबी कुछ कदमों की दूरी है !-
*********ख़्वाब और हक़ीक़त********
ख़्वाब और हक़ीक़त,
क्या रिश्ता है इनका,
कुछ हसीं ख़्वाब जो,
अंज़ाम से जा गले मिले,
स्वपन वो साकार बनकर,
हक़ीक़त की प्रेरणा बने!
कुछ अधूरे ख़्वाब जो,
देहरी तक जा कर थक गए,
ना चूम पाए हक़ीक़त की मंजिल पर,
मार्गदर्शक बन गए!
कुछ थे सपने कद से बड़े जो,
क्षणभर की खुशी से भर गए,
हकीकत की रस्सी से लटक कर,
ख़्वाब वो खुदकुशी कर गए!
कुछ बातें कुछ हसीं मुलाक़ातें,
कुछ रातें और जाने कितनी जज़्बातें,
ख्वाबों में जिंदादिल थे बैठे,
हक़ीक़त को ख़ाक सुपुर्द कर गए!
कुछ अभी भी ख़्वाब गुपचुप से,
पलकों के पीछे ही रह गए !!-
सौ चोटें कुदाल की,
स्वेद बूंदें खनन श्रमिक की,
असफलता मुँह चिढ़ाती है,
फिर 101 वीं बार चली कुदाल जब,
सोने की खानें मिल जाती है,
असफलता और सफलता के बीच की खाई
उस एक प्रहार तक सिमट जाती है !
छः युद्धों में पराजित नरेश,
जा कर गुफ़ा के अँधेरे में,
मायूस नज़र सा आता है,
फिर मकड़ी के बुनते जालों से,
साहस का अम्बार भर लाता है,
फिर सातवें युद्ध में हौसले से,
रण विजयी कर लाता है,
असफलता और सफलता के बीच की खाई
उस एक प्रयास से पाट लाता है!
नन्हीं चींटी के अथक प्रयास भी जब,
दाने का ढेर उठा न सके,
फिर एक आखिरी कोशिश से,
मंजिल सुलभ हो जाती है,
असफलता और सफलता के बीच की खाई
उस एक कोशिश से भर जाती है !
असफलता बस इतनी ही अधूरी है,
कामयाबी कुछ कदमों की दूरी है !-
*********चल आ एक ऐसी नज़्म कहूँ*********
चल आ एक ऐसी नज़्म कहूँ
जो लफ्ज़ कहूँ वो हो जाये
बस अश्क़ कहूँ तो एक आँसू
तेरे गोरे गाल को धो जाये
मैं आ लिखूं तू आ जाये
मैं बैठ लिखूं तू आ बैठे
मेरे शाने पर सर रखे तू
मैं नींद कहूँ तू सो जाये
मैं कागज़ पर तेरे होंठ लिक्खूं
तेरे होंठो पर मुस्कान आये
मैं दिल लिखूं तू दिल थामे
मैं गुम लिखूं वो खो जाये
तेरे हाथ बनाऊँ पेंसिल से
फिर हाथ पे तेरे हाथ रखूं
कुछ उल्टा सीधा फ़र्ज़ करूँ
कुछ सीधा उल्टा हो जाये
मैं आह लिखूं तू हाये करे
बैचैन लिखूं बैचैन हो तू
फिर बैचैन का बै काटूँ
मुझे चैन जरा सा हो जाये
अभी ऐन लिखूँ तू सोचे मुझे
फिर शीन लिखूं तेरी नींद उड़े
जब क़ाफ़ लिखूं तुझे कुछ कुछ हो
मैं इश्क़ लिखूँ तुझे हो जाये!
-आमीर अमीर-
मेरी कल्पना का सागर
कभी उधेड़बुन का जल प्रपात बनकर,
उकेरता है आयुष के कैनवास पर,
कुछ आकृतियाँ भविष्य के चिलमन से,
और कुछ खींच लाता है कलाकृतियाँ,
अतीत के आगोश से!
मेरी कल्पना का सागर,
कुछ भविष्य के सुनहरे सपनों से,
कुछ अतीत के ज़ख़्म, मिले जो अपनों से,
भरता है रंग वर्तमान तूलिका में,
और चित्रित करता है भावनाओं की कृतियाँ,
कुछ भाव हर्ष और उन्माद के,
कुछ भय और विषाद के!
मेरी कल्पना का सागर,
लेता है हिलोरें ज्वार भाटा समान,
और समा लेता है अनंत आकाश को भी,
पक्षी की आँख में एक बिंदु के समान,
और अपने असीम भावों की अभिव्यक्ति से,
करता है नियंत्रित जीवन संतुलन की कमान!-
जानती हो,
क्यों रखा है तुम्हे मोर पंख बनाकर,
किताब के पन्नों के बीच सलीके से?
रख सकता था तुम्हे और तुम्हारे उस
मखमल सम मृदुल एहसास को,
सुर्ख लाल गुलाब बनाकर,
किताब के उन पन्नों के मध्य,
जिन्हें पढ़ प्रेम स्मृतियाँ भी चटख लाल हो जाती हैं |
पर समय की धूलि कालांतर में,
मुरझा देती उस गुलाब स्मृति को,
गँवारा नहीं मुझे तुम्हारे प्रेम का कभी यूँ मुरझाना,
क्योंकि देखा है मैंने सिर्फ इस प्रेम वसंत की कलिका का मुस्काना,
इसलिए स्मृतियाँ सहेज दी मैंने
रेशमी कोमल मोर पंख बना कर,
ऋतु परिवर्तन से परे बनाकर,
सदाबहार कायनात तक,
मेरे हाथों की छुअन से गुलज़ार,
सदाबहार, सदाबहार युगों युगों तक!-
सुना है वो चौपाल वाला खडंजा चौड़ा हो रहा है,
क्या बात कहते हो चचा ,गांव में विधायक जी का दौरा हो रहा है!
बगीचे की चाहरदीवारी पर पुताई का सफेद घोल चढ़ा रहे हैं,
सुना है विधायक जी के सेवक, जनता के चेहरे पर खोल चढ़ा रहे हैं!
पाठशाला में मास्टर जी भी, विकास का भूगोल पढ़ा रहे हैं,
और कुत्तों ने भी जश्न शुरू किया, भैय्या जी गांव में सोलर पोल लगा रहे हैं!
नारी रक्षण पर भाषण सुनकर, लगा भैय्या जी ही त्रेता हैं,
मंच से दूर दिखा एक सेवक, कहता मुफ्त मदिरा का विक्रेता है!
दुआरी पर मोबाइल लिए बैठा था छोटू, बोला पापा चंद्रयान उड़ा रही इसरो,
विधायक दल का 'बोलेरो दल' निकला और बोला "अच्छे दिन आ गये मित्रों "!
ईद के चाँद विधायक जी की, अब पुलिया तक आती सवारी है,
सच कहत हो चाचा तुमही, लागत है ई चुनावी मौसम वाली बीमारी है!
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ना पयम्बर, ना शोहरत, ना ख़्वाब-ए-शहर चाहिए,
पनाह लफ़्ज़ों को दे, वो छोटा सा घर चाहिए !
ना बुलंदी, ना अज़्मत, ना आलीशान महल चाहिए,
तेरे नज़्मों से सजी वो एक खूबसूरत ग़ज़ल चाहिए!
वक़्त समेटने की आरज़ू किसे है, छोटा सा बस इक पल चाहिए,
काफ़िले की ख्वाहिश नहीं है, अज़ीज़-ए-मन की फ़कत इक अमल चाहिए! — % &-
ना कर यूँ गुरूर ए चाँद, अपनी चौदहवीं का,
जमीं के चाँद से ही तेरा आफ़्ताब नज़र आता है!
ना हो ये करवा चौथ पे जो, मेरे महबूब की मन्नत,
अमावस की कालिख में, तेरा वजूद सिमट जाता है !
मेरे हमदम की चाहत ने, नवाज़ा इस कदर तुझको,
छलनी से जो दिखे सूरत उसकी, तभी तू बेदाग़ नज़र आता है !-