Narendra Jaiswal  
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Joined 7 June 2019


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Joined 7 June 2019
8 DEC 2024 AT 17:04

गैरों को अपने ज़हन में यूंँ ही बसाता कौन है
अपनी सारी हक़ीक़त ज़ुबां पर लाता कौन है
बुनी जा रहीं आजकल यहां इश्क़ की साजिशें
बेवजह अपनी आंँखों से आंँसू बहाता कौन है

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29 NOV 2024 AT 20:03

मिलना है तुझसे ऐ! ज़िंदगी
ज़िंदगी की शाम से पहले।
मिट्टी से बने इस जिस्म का
मिट्टी में इंतज़ाम से पहले।।
लेना है हिसाब तुझसे मेरी
कोशिशों, नाकामियों का।
पूँछना है तुझसे चंद सवाल
तेरी सारी मनमानियों का।
क्यों हो रहा हूंँ, मैं नाकाम
अब हर बार काम से पहले।
मिलना है तुझसे ऐ! ज़िंदगी
ज़िंदगी की शाम से पहले।

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22 NOV 2024 AT 23:51

कद्र नहीं है यहांँ किसी को
किसी के जज़्बात की,
बात ज़रूरी हो
तभी सबको बताई जाती है।
मुनासिब है कुछ वक्त
यूंँ ही तनहाई में गुज़ार लेना,
महफिलें अक्सर
अपनों में ही सजाई जाती हैं।
दवा-दुआ यक़ीनन
दोनों ही लाज़मी हैं,
तबियत गर नासाज़ हो
हकीम को दिखाई जाती है।

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22 NOV 2024 AT 18:59

रंग मोहब्बत का
उन पर भी चढ़ जाए
तो क्या बात है।
इस मंज़िल की तरफ़
वो आगे बढ़ जाएँ
तो क्या बात है।
किनारे पर ठहरकर
भला कैसे लगेगा अंदाज़ा
इसकी गहराई का।
बेख़बर होकर
इस दरिया में उतर जाएँ
तो क्या बात है।

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22 NOV 2024 AT 18:49

बात अभी की नहीं है
कुछ पुरानी है,
ज़हन में दबा कर रखा था
अब सबको बतानी है।
कागज़ पर लिखे ये लफ़्ज़
जो तुम पढ़ रहे हो,
ये किसी और की नहीं
हमारी ही कहानी है।

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21 NOV 2024 AT 15:24

लेते रहना ख़बर हमारी
अपनी भी हमें बताते रहना
वक्त निकालकर थोड़ा थोड़ा
बीच बीच में घर आते रहना

चलना संभलकर हर मोड़ पर
दुनिया से ख़ुद को बचाते रहना
तकलीफ रहे ज़रा सा भी
पल पल हमें बताते रहना

रहना तुम दृढ़ निश्चयी होकर
पांँव अपने वहांँ जमाते रहना
मिलेगी तुम्हें कामयाबी ज़रूर
बस मन में ख़्वाब सजाते रहना

सोना न कभी भी भूखें पेट
चाहे थोड़ा सा ही पकाते रहना
याद आए जब खाने की मेरे
बीच बीच में घर आते रहना

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20 NOV 2024 AT 17:15

एक बार में ही कुछ भी हासिल हुआ नहीं हमें
जो कुछ मिला, मिला हमें आहिस्ता आहिस्ता

कितना ही वक्त गुज़ारा, कितनी ही रातें बेकार की
तब जाकर मंज़िल नज़र आई आहिस्ता आहिस्ता

हम तो अक्सर ही उन्हें ख़्वाबों में ढूंँढा करते थे
कल रात वो हमें ढूंढते दिखे आहिस्ता आहिस्ता

बेजान, बेरंग सी थी ये दुनिया हमारी अब तलक
मोहब्बत का रंग चढ़ा इसमें आहिस्ता आहिस्ता

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19 NOV 2024 AT 16:45

मेरे पास उनकी और कोई निशानी नहीं है
बता सकें तुम्हें ऐसी कोई कहानी नहीं है

ज़हन में बसी यादें अब धुंधली सी हो चलीं
एक एक लम्हा याद हमें मुंहजबानी नहीं है

वो वक्त और था, भीतर के जज़्बात और थे
अब हमारे इश्क़ में पहले जैसी रवानी नहीं है

बेख़बर हूंँ इस तसवीर में दिख रहे शख़्स से
मेरे हिसाब से ये सूरत जानीं पहचानी नहीं है

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18 NOV 2024 AT 17:06

मेरी गज़लों को तुम, अब अपना नाम दे दो
मशहूर होने का इन्हें भी, एक इंतज़ाम दे दो

नुमाइश कर करके इनकी, अब थक चुका हूंँ
हो सके इन्हें भी, एक छोटा सा ईनाम दे दो

नाकारा सी फिरती रहती हैं, ये तो दर बदर
ठहर जाने का इन्हें भी, एक मुकाम दे दो

दबी दबी सी आवाज़ है, इनकी अब तलक
गर हो सके, तुम इन्हें एक नई आवाम दे दो

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18 NOV 2024 AT 14:27

रात को दिन, दिन को वो रात कर रहे हैं
अपना सारा वक्त, मुझपे बर्बाद कर रहे हैं

ताल्लुक हो उनसे, जैसे मेरी सदियों पुरानी
कुछ इस कदर मुझको, वो याद कर रहे हैं

नादान समझता रहा, मैं जिस शख्सियत को
शरारत भरे लहज़े में, वो अब बात कर रहे हैं

ख़ामोश रहा करते थे, जो हर मुलाक़ात में
कल से बयां, वो अपने सारे राज़ कर रहे हैं

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