यहाँ मंज़र ही कुछ ऐसा हैं
आँखों मे सबकी है पानी
डरे खामोश से बैठे है
अपनी जान बचाने में
मासूम बन रहे है शिकार
मज़हब की आड़ में
बर्बरता भी फैली हैं
आज इस जहान में
इंसानियत तो जैसे बची नहीं
रूह को भी बेच खाया हैं
धर्म की आड़ में
आतंकवाद फैलाया है
निर्मम, निर्दयी, कठोर,पत्तर दिलों ने
इंसान होकर इंसान का ही खून बहाया हैं
अरे भूल गई, कैसे कह दूँ उन जानवरों को इंसान
जिन्होंने अपने आतंक का खौफ हर घर में फैलाया हैं
आज भी इंतज़ार हैं, उस एक दिन का
जब दुनियां से मिट जाएंगे सारे बैर
लोगों में नफरत नहीं दिलों में प्यार होगा
न ही उनकी नफरतों का वो बाज़ार होगा
शांति ही फैली होगी चारों तरफ
और खुशियों का भंडार होगा
ना जाने कब वो दिन आएगा
जब इंसान जानवर नहीं इंसान ही कहलायेगा।
-Naina Arora
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