मैंने शाम के धुंधलके को आंचल से बांध लिया है जानते हो क्यों? क्योंकि ये मुझसे मेरी पहचान करवाती है और बताती है की मेरे एहसासों का सुरज अब ढल चुका है ।
हां मन के किसी कोने में स्मृतियों का झींगुर जब तब कुलबुला उठता है और फिर झींक देता है मुझे मेरी लाचारी के लिए "देखो कभी इतना डूब गई थी तुम एहसासों में अब मुझे तुम्हारे भीतर जीने के लिए हर रोज मरना पड़ता है" मौन हूं क्यों की कोई उत्तर नही मेरे पास उसके झींकने का । शायद मैंने ही उसे ये अवसर दिया है।
मैने आंखो को कहा अब आराम करे बरसात के बाद अभी आत्मा की जमीन नम और भुरभुरी सी बन गई है जब फिर से एक बार आत्मा तड़कने लगे तुम्हारे दिए अनगिनत चोटों से तो बरस पड़ेगी ! कौन सा भला मैने इसे बांध रखा है वचनों में ।
समाधिस्थ हैं अभी मेरे इस मन के सभी भाव जो विचारों के आवागमन से अब मोक्ष की ओर चल पड़े हैं मोक्ष की चाहत इनकी है , मेरी नही, मेरे जीवन के अंतिम बसंत की सौगंध ।
हां बस इतना कहना था तुमसे की तुम्हारे मिथ्यावचनों के महाप्रयाण के बाद इस संबंध को मुखाग्नि देने मत आना क्यों की मैं मुक्त होकर फिर से तुम्हारे सामने आने की संभावना से भी इंकार करती हूं ,मुझे यूं ही भटकना है अपने कर्मों और गलतियों का बोझ अपने कंधों पर उठाए हुए।
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minakshi
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