आज कुछ तो लिखना है!
काफी दिन हुए ख़यालों को काग़ज़ पर उतारे हुए,
सुबह की चाय पर ही सही,
पर आज कुछ तो लिखना है।
हर रोज़ खिड़की पे बैठे इतनी कहानियां बटोरी हैं,
उस अंजान बच्चे के पहले कदमों पर,
या शाम को उस हरी बस से उतरने वाली के गजरे पर,
या फिर पड़ोस के घर की रसोई की खुशबू पर
आज कुछ तो लिखना है
ना जाने क्यूं कलम पकड़ने में हाथ अब थरथराते हैं,
ख़याल मेरे - संवरने को, शब्द नहीं ढूंढ पाते है,
बिना अर्थ का श्रृंगार करवाए, बिना रंगीन स्याही में लपेटे
एक साधारण, अशोधित छंद ही सही
पर कुछ तो लिखना है।
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