22 APR 2018 AT 17:50

रिवाज़-ए-मोहब्बत हम निभाते चले गए
वो हमारी हर निशानी मिटाते चले गए

चलती साँसें थकती नहीं थी उनका नाम लेते
इश्क़ में वो हमें इस मक़ाम पर लाते चले गए

अंदाज़-ए-बयां कुछ अलग ही था उनके इज़हार का
अपनी बातों में हमें वो ऐसे सजाते चले गए

माना कि दूरियां गहरी होती गई एक तकरार से
फिर भी उनकी ज़ानिब हम कदम बढ़ाते चले गए

मुक़म्मल हो कहीं यूँ उन्हें जीने का तसव्वुर हमारा
ये सोच हम मौत की आग़ोश में समाते चले गए

फूल हमारी ज़ुल्फ़ों में जिसने लगाया नहीं कभी
वो आज मेरी कब्र पर गुलिस्तां सजाते चले गए

- Manvi Verma ©