चौखट पर बैठी है शाम,
दरवाज़े को निहारते यूँ ही...
इंतज़ार है उसे भी सदियों से,
उस उजाले का...
जो मुँह फुलाकर बैठी है,
शायद थोड़ी नाराज़ भी है...
अब तो आते जाते परिंदे,
भी दोस्त हैं उसके...
जुगनुओं का तो जमघट लगा रहता है,
उसके आस पास..
ढेरों कहानियां जो सुनाती है वो,
अपने तजुर्बे से...
बीतते वक़्त के साथ
धूप की चमक भी फीकी पड़ रही अब,
बूढ़ी हो रही है वो भी...
जाने कब दिल पिघलेगा उजाले का,
बस उस पल के इंतज़ार में,
चौखट पर बैठी है शाम...
- Manvi Verma ©