Manvi Verma Raman   (Manvi Verma ©)
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Joined 6 July 2017


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18 OCT 2020 AT 22:33

चाँद आज जो मेरी ड्योढ़ी पर आ बैठा
मेरी सियाह रातों की आखिरकार सुबह हो गयी

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27 SEP 2020 AT 16:55

कुछ उदास सी शाम में,
यूँ ही दरिया किनारे
ढ़लते सूरज को देख सोचते हैं
अंधियारा घिर जाए चारों ओर
उससे पहले थोड़ी आग उसकी
खुद में जज़्ब कर लेते हैं
मुसीबतों से लड़ने के लिए
अंदर की आग बुझनी नहीं चाहिए
इस पल में मुझे इससे ज्यादा
और कुछ नहीं चाहिए
ज्यादा गर्माहट पी लूं जो
तो दरिया ये साथ निभाएगी
बस यूँही कुछ पाकर, कुछ खोकर
ज़िंदगी कट जाएगी...

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27 SEP 2020 AT 16:51

वो बेज़ान सा हो चुका शज़र
और उससे हर रोज़ गिर कर अलग होते
वो सूखे पत्ते
हर पत्ते के पास अलग कहानी है
हर पत्ते के अलग जज़्बात जुड़े हैं उस शज़र से
ज़िंदगी और मौत के मुहाने पर ही खड़ा वो शज़र
पुराने दिनों को याद करता है
और अपने से जुदा होते हर पत्ते को रुख़सत कर रहा है
पर चाह कर भी आंसू नहीं बहा सकता
पत्ते भी नीचे ज़मीं को चूमते हैं
और वापस फिर उस शज़र से लिपटना चाहते हैं
पर हवाएं बैर निभा रही उनसे
समझती नहीं कि कितना मुश्किल होता है
अपनों से जुदा होना हमेशा के लिए
जब दोनों ओर मौत दस्तक दे रही हो
तो सांसों की डोर टूटने तक
बस साथ रहना चाहते हैं वो
पर नियति का साथ हर किसी को नहीं मिलता

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17 SEP 2020 AT 8:27

याद आती है वो शाम
जब चिड़ियों संग हम भी
अपने-अपने घर को हो लेते थे...
खेलकर दोस्तों के साथ मोहल्ले में
गिल्ली डंडा, गली क्रिकेट, जंजीर...
और ना जाने कितने खेल थे हमारे पास...
इस खेल में हुई भागम-भाग
और दोस्तों के साथ मस्ती कर के,
कभी थकान नहीं होती थी...
बल्कि एक नई ताकत मिलती थी...
याद आती है वो शाम,
वो बेफिक्री वाली शाम...
जब ज़िन्दगी इन गैजेट्स में नहीं थी...
तब दोस्तों का किसी बात पर नाराज़ होना,
रातों की नींद गायब करने वाला होता था...
आज तो बस खानापूर्ति होती है
हर रिश्ते में...
इस भागदौड़ वाली ज़िन्दगी में,
खुशियों वाले पल खो से गए हैं...
जो अंदर से महसूस करते थे कभी,
छोटी छोटी चीजों में...
आज जब बड़ी बड़ी चीजें भी
रुआंसा कर जाती हैं हमें,
तो याद आती है वो शाम,
वो बेफिक्री वाली शाम...

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16 SEP 2020 AT 18:10

लफ़्ज़ों के परिंदे हैं चारों ओर मेरे...
बेफिक्री से पंख फैला उड़ते है
मेरी ख़यालों की दुनिया में...
जानते हैं वो इससे खुला आसमां
उन्हें नहीं मिलेगा...
ऐसी आज़ादी नहीं नसीब होगी उन्हें कहीं..
कोई रोक टोक नहीं है उनको,
न ही पिंजरों में कैद हो जाने का खौफ़ है...
यहाँ तो बस आज़ादी है...
लफ़्ज़ों की आज़ादी,
हर तरह की दुनिया घूमने की आज़ादी,
लापरवाह सा भटकने की आज़ादी...
इससे ज्यादा आज़ादी कोई क्या चाहेगा!!!
जिसे भी ये आज़ादी चाहिए,
वो बस इसी लफ़्ज़ों की दुनिया में घूम ले
यहीं का होकर रह जाएगा...
और उड़ेगा यूँही आज़ाद परिंदे की तरह...

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13 SEP 2020 AT 14:06

पेड़ के झुरमुट से ताकता सूरज
बस विदा लेने को तैयार है
हर रंग में सरोबार कर जाएगा ये आसमां को
ढलने से पहले
आसमां भी इतराते नहीं थकता उस पूरे वक़्त
दिन भर नीली चादर ओढ़े बोर जो होता है वो
और सूरज की तपिश भी झेलता है...
कभी कभी उड़ते बादलों को झूला झुला देता है
तो कुछ देर तो मन बहल जाता है उसका
पर शाम होते ही अलग ही दुनिया में रहता है वो
शाम ढ़लते हर रंग के कपड़े जो मिलते हैं उसे
तो हर रोज़ एक छोटे बच्चे सा इठलाता है
हर रोज़ मिन्नतें करता है सूरज को
शाम को कुछ देर और थाम कर रखने की
पर रोज़ सूरज हँसता है उसकी बातों पर
और चाँद को रात का राज पाट सौंप चल देता है
आसमां सतरंगी रंगों से स्याह हो जाता है
फिर दुःखी होता है वो एक रंग में लिपटकर
पर सितारों से दोस्ती कर ली है उसने
रात भर गप्पें लड़ाता है वो उनके साथ
और अगली सुबह का इंतजार करता है

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31 JUL 2020 AT 19:19

कहीं दूर जाकर अटक गया है चाँद
मेरी गलियों में आजकल आता नहीं
जाने किसके मोहपाश में फंस गया है चाँद
रोशनी से अपनी मुझे भरमाता नहीं
रोज़ तकती हूँ मैं रस्ता उसका
रोज़ तारों से पूछती हूँ मैं पता उसका
पर किसी को ख़बर नहीं उसकी
जाने कहाँ छुप गया है चाँद
रिपोर्ट लिखवाऊं कहाँ जाकर मैं
उसकी गुमशुदगी की
किससे शिकायत लगाऊँ मैं
उसके मुझसे मुँह मोड़ने की
इतने विशाल अंतरिक्ष में खो गया है चाँद
हाँ! गुमशुदा हो गया है चाँद

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7 JUL 2020 AT 15:56

तुम्हारे हक़ के दायरे भी हैं क्या!!!
तो समेट लो मुझको उन दायरों में...
मैं पानी जैसी हूँ, अगर दूसरा रास्ता पकड़ लिया
तो ख्वामख्वाह तुम्हें तकलीफ़ होगी...

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25 JUN 2020 AT 8:45

कितना कुछ दबा रखा है अंदर मैंने
जाने कितने बरसों से
खौल रहा है बस वो सारा ग़ुबार
बाहर निकलने को बेताब है
पर निकाल नहीं सकता एक बूंद भी इसकी बाहर मैं
मन कभी कभी बहुत उद्वेलित होता है
पर फिर भी बर्दाश्त की सीमा के पार रोक रखा है खुद को
जानता हूँ अगर जो फूट पड़ा अंदर का लावा मेरा
तो नरक हो जाएगी ये दुनिया
सम्भाल नहीं पाएगा ये संसार इस तपिश को
जो झेल रहा हूँ मैं अनन्त बरसों से
किस्मत भी तो नहीं पढ़ सकता मैं अपनी
घुल के वो भी लावा बन चुकी हैं अब तो
पर कभी तो अंत होगा पर मेरे इस दर्द का
कभी तो थोड़ी राहत नसीब होगी मुझे भी

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23 JUN 2020 AT 18:53

अधूरी कविताओं, किताबों और टेलीस्कोप
से बनाता था वो तस्वीरें धुंधली...
फिर तराश कर उसे अपनी मेहनत से
उनमें रंग भरता था अपने ख्वाबों के...
वो ख्वाब जो आसमानी थे,
सितारों में टांके हुए थे,
गुरु ग्रह के नारंगी छल्लों में घूम रहे थे...
गणित के फ़ॉर्मूलों में उसे उलझनें नहीं,
ज़िंदगी का सुकून दिखता था...
पूरा अंतरिक्ष उसे बस एक चुम्बक की तरह
हर बार अपनी ओर खींचता था...
और ये उस भूलभुलैया में ग़ुम
दुनिया से बेख़बर जीता था, सांसे लेता था...
पर इन सब से बिल्कुल उलट
एक झूठी चकाचौंध भरी दुनिया का भी था हिस्सा वो..
वो दुनिया भी इसके एक जुनून का हिस्सा थी...
पर कहाँ पता था उसे कि उसकी असली खुशी
तो उस अंतरिक्ष के रहस्यों में थी...
इस चकाचौंध ने तो अंधेरा ही कर दिया...
हमेशा के लिए सबसे जुदा ही कर दिया...

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