जीती हूँ तुम्हें भी ।
पूछते हैं लोग कि इतनी ज़िन्दगी कहाँ से हो लाती?
इल्म क्या उन्हें भी,
कि एक हिस्सा जीती हूँ तुम्हें भी खुद में।
जिसे लोग मेरी हंसी समझते हैं,
वो ख्याल तुम्हारा है।
झूमती जो हूँ फिज़ा के साथ,
वो उत्साह तुम्हारा है।
लिखावट है ये मेरी,
पर अहसास तुम्हारा है।
निडर सी जो छवि मेरी,
सिर्फ इसलिए कि अजय है ऊर्जा तेरी।
कोमल भाव तुम्हारे हैं,
जोशिले वाले मेरे हैं।
शोरगुल मेरा, शान्ति तुम्हारी।
कभी तुम ज्यादा और मैं कम,
तो कभी मैं ज्यादा और तुम कम।
पर फर्क की पैंदा यार!
ये तर्क तो है सब बेकार।
खुदा को खुद कीसी रिश्ते में बसना था।
हमारा मरासिम तो बस एक बहाना था।
शिफा हुई तुमसे, जैसे तुम हो कोई ताबीज।
रखाँगी तुमको सदा खुद में मुहाफिज।
-Mala Mandhyan
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