कुछ परिंदों को ऊँचा उड़ना होता है,
कुछ मुसाफिरों को नया राह ढूँढना होता है,
जो चले जाते है यूँ बेवक्त घर छोड़कर,
उनके अरमानों को ना जाने कौन सा शिखर छुना होता है।
वो कहाँ ठहरते है भीड़ के साथ,
उनका व्यवहार तो पानी सा विपरीत होता है।
वो जानते नहीं रिवाज़-ए-जहान को,
उनका मक़सद तो जहान को तब्दील करना होता है।
वो कैद हुआ नहीं करते - अफसाने, अख़बारों और किताबों में,
उनका संघर्ष उन्हें शिलालेख बना कर चला जाता है।
कुछ फसल जल्दी ही पक जाती है,
कुछ बर्फ़ सर्दी में भी पिघल जाती है,
जो कह देते है अलविदा बीच सफ़र में,
माँ कहती है - ख़ुदा को उनकी बहुत जरूरत होती है।
वो बाशिंदे से एक जगह के नहीं होते,
बंजारो सी रूह एक जहान से दूजे तक घूमती रहती हैं।
उनकी रौनक को जरूरत नहीं किसी दीप की,
उनकी यादों की शमा पूरे शहर को रोशन रखती है।
उनके खातिर यूँ अश्क बहाना,
उनको कितना लज्जाता है,
कस्तूरी को जब कपूर में जलाया जाता है।
रुखसत हो कर वो हमसे जाते कहाँ है,
बंद आँखो से देखो, वो आज भी कितने पास है।
वो जो चले जाते है महफ़िल से उम्दा किरदार निभा कर के,
दिल लगाना उनसे, फ़क़त अपना ही नुक़सान है।।
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