मैं पाओं में बेड़ियाँ डाल कर, तुम सब कि तरह ख़ुद को घिसना नहीं चाहती!! तुम्हारी तरह मेरे काँधे पर भी, आसमानी ऊँचाइयों में घर करने की ज़िम्मेदारी है।
कौन देखेगा मुझे? कौन सुनेगा?
मैं पंख लगा कर उड़ना नहीं चाहती। मैं तो तैरना चाहती हूँ।
सागर की गहराइयों में, नदी की लेहरों में, मैं खो जाना चाहती हूँ। किसी सीप की कोख़ में घर ढूँढना चाहती हूँ। सारे बांध तोड़ कर मैं फ़ुहारों की तरह हवा से मिलना चाहती हूँ। बरसाती तूफ़ाँ में, जब तुम सब अपनी-अपनी छत ढूँढते हो, मैं सैलाब सा मचलना चाहती हूँ।
सब कुछ ख़ुद में समेट कर मैं शांत होना चाहती हूँ।
मैं तैरना चाहती हूँ।
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