सावन आया चला जाएगा, फागुन भी न रूक पाएगा
लफ्ज़ों को कैसे मैं खो दूँ ? छन्द भाव न दे पाएगा
क्या रक्खा दुनियादारी में, राजनीति की बीमारी में
क्या लिखूं मैं इस पर अब, कुछ भी न इस बेकारी में
रिश्ते नाते बस झूठे हैं, मतलब निकले तो टूटे हैं
जाया क्यों अल्फ़ाज़ करूं, बीच रास्ते सब छूटे हैं
बात बनी न मयखानों पर, मय छलकाते पैमानों पर
लैला मजनू हीर रांझना, क्या बोलूँ इन अफसानों पर
शब्दों के ही बस राही हैं, हम तेरे दर के प्रश्रायी हैं
कैसे लिखूंँ बिना तेरे कुछ, यादें तेरी ही स्याही हैं
तुम्हें लिखूँगा हरपल हमदम, जब तक मेरी सांस चलेगी
कलम नहीं ये कभी रुकेगी, कलम नहीं ये कभी रुकेगी..
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