मेरी खिड़की के मुँडेर पे बैठा कबूतर
हर शाम चीख कर बतियाता है
सड़क पार मकान की रौशनदान पे बैठी
मादा कबूतर से।
इक रोज सुना
चिल्ला रहा था कबूतर
जमाने के बिगड़ते हालात पे
उसकी कर्कशता बयां कर रही थी दास्ताँ
प्रतिपल बदलते मंजर की ।
बातें मेरी भी हुई होंगी
मेरी गैर मौजूदगी में,
शायद नापसंद है उसे
मेरा यूँ कमरे में आकर
उसकी चिल्लाहट पर विराम लगाना
नापसंद है उसे
मेरी चुप्पियाँ,
अंदर दबा भूचाल,
देखा है मैंने कई दफा
उड़ जाते उसे
कमरे का दरवाजा खुलने के साथ ही।
वो नहीं समझता मेरी ख़ामोशी को
वरना यूँ नफरत ना करता मुझसे
मुझे भी चुभता है शहर का ये शोर
इक शोर है मुझमें भी जो फकत गूँजती रहती है।
अफ़सोस
मुझमें और उस कबूतर में
एकमात्र फर्क है
मैं शोर नहीं मचा सकता.
- Thatmbapoet