अक्सर ,
चली जाती हूँ मैं।
चुपके से,
अतीत के उस गलियारे में,
जहां देखती हूँ खुद को,
दौड़ कर,
आपकी गोद में चढ़ते हुए।
मुझे,
आपकी गोद में,
और फिर आपकी उंगलियां थाम कर,
आपके साथ बाज़ार जाना याद है पापा।
मुझे वो टॉफी, खिलौनों की जिद करना,
और आपका,
मेरी हर ज़िद पूरी करना भी याद है पापा।
मैं कब रोने वाली हूँ,
और मुझे कब मुस्कान की ज़रूरत है,
आपको सब मालूम होना भी याद है पापा।
पापा,
मैं आज भी रोने से पहले आपको ढूंढती हूँ,
आज भी मुस्काने से पहले आपको देखती हूँ।
मैं जानती हूँ कि आप मुझे दुनिया दे देना चाहते हैं,
लेकिन पापा,
मेरे लिए,
‘पापा की लाडो’ कहलाने से बड़ा,
कुछ भी नहीं।
- कीर्ति !!
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