20 MAR 2019 AT 21:22

एक टोली हमारी भी थी,
बचपन की होली निराली थी।
रंगों के नाम नहीं थे ज़ुबानी,
फिर भी करते थे उनसे मनमानी।
अब जब रंगों को जाना है,
तब तक बदल गया जमाना है।
भर पिचकारी एक दूजे को रंगते थे,
अबीर गुलाल की छटा बिखेरते थे।
कहीं धूमिल हो गए वो रंग बचपन के,
दोस्त भी नहीं मिलते अब उस ढंग से।
बस यादों में रह गई टोली हमारी,
याद आती है वही बचपन की होली निराली।

- ख़िरमन