उत्साह सम्पन्नं अधीर्घ सूत्रं क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वासक्तं।
शूरं कृतज्ञं दृढ़सौह्रदं च लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः।।-
काम ऐसा करो की नजीर बन जाओ।
खुद ही खुद की तकदीर बन जाओ।।
समन्दर की लहरे भी मिटा न सकें,
तुम रेत की वो तस्वीर बन जाओ।।-
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
-गजानन माधव मुक्तिबोध-
कौन कहे?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती--
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्र मुख हँसी-खिली,
खेल रंग, प्यारे संग
-निराला-
कहाँ गया धनपति कुबेर वह?
कहाँ गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
- बाबा नागार्जुन-
हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
-अज्ञेय
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मनुष्य हूँ (बाबा नागार्जन)-
नहीं कभी क्या मैं थकता हूँ ?
अहोरात्र क्या नील गगन में उड़ सकता हूँ ?
मेरे चित्तकबरे पंखो की भास्वर छाया
क्या न कभी स्तम्भित होती है
हरे धान की स्निग्ध छटा पर ?
-उड़द मूँग की निविड़ जटा पर ?
आखिर मैं तो मनुष्य हूँ—–
उरूरहित सारथि है जिसका
एक मात्र पहिया है जिसमें
सात सात घोड़ो का वह रथ नहीं चाहिए
मुझको नियत दिशा का वह पथ नहीं चाहिए
पृथ्वी ही मेरी माता है
इसे देखकर हरित भारत , मन कैसा प्रमुदित हो जाता है ?
सब है इस पर ,
जीव -जंतु नाना प्रकार के
तृण -तरु लता गुल्म भी बहुविधि
चंद्र सूर्य हैं
ग्रहगण भी हैं
शत -सहस्र संख्या में बिखरे तारे भी हैं
सब है इस पर ,
कालकूट भी यही पड़ा है
अमृतकलश भी यहीं रखा पड़ा है
नीली ग्रीवावाले उस मृत्यंजय का भी बाप यहीं हैं
अमृत -प्राप्ति के हेतु देवगण
नहीं दुबारा
अब ठग सकते
दानव कुल को
-मनुष्य हूँ (बाबा नागार्जन)-
अक्षर-साधाना की सफल सिद्धि के लिए साधक(विद्यार्थी) अध्ययन-समाधि में अभ्यस्त होना अत्यंत आवश्यक है।
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राम चले पइयां पइयां
साथ में तीनिउ भइयां
गोकुल में कृष्ण कन्हैया
और नंद बाबा की गईयां
सबै से अरज है हमारी
हमारी पार लगादो नइयां
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