आइयनें में देखता हूँ ख़ुद को यकीनन शकस ये वो नही ज़र्रा - ज़र्रा हर रोज़ बदलती है ज़िंदगी और सालों लग जाते हैं उन बदलते सालों में ख़ुद को तब्दील देखना मरता ज़रूर है अंदर कुछ किसी का राम किसी का रावण अजीब है एक इंसान में कई शकस होना मैं जनता नहीं आइयनें में ख़ुद को ही देखता हूँ क्या