क्यू बार बार अतीत के साये में लिपटती ही जाती हूँ
जिसका अक्श जहन से मिटाना है रह रहकर उसी को याद करती हूँ
जिसको गए मुद्दतो हुए ,चलो अब उसको भूल जाती हूँ
मगर ये कैसे मुमकिन होगा अपने दिल से सवाल करती हूँ
मै किसी भी शहर ,किसी भी दीवार ओ दर जाती हूँ
मै बैचैन होकर हर तरफ उसको तलाश करती हूँ
वो मोहन तो नहीं फिर क्यू मै राधा सी बावली हो जाती हूँ
जो मेरा हो नही सकता क्यू फिर भी मै मोहब्बत उसे बेशुमार करती हूँ
जब लकीरों में उसे ढूंढ ढूंढ कर थक हार जाती हूँ
मैं खुदा के आगे रो रोकर तकदीर बदलने की फरियाद करती हूँ
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