योद्धा में विकराल था।
शत्रुओं का काल था।
जब कोई पराजित न कर पाया।
तब फैलाया कुचक्र का जाल था।।
कवच कुण्डल को मैंने दान दिया।
पाँच पुत्रों की रक्षा का वचन माँ ने माँग लिया।
तब नियति के चक्र को मैंने पहचान लिया।
मृत्यु निश्चित हैं फिर भी,
मित्र की ओर से लडूंगा ये ठान लिया।।
जब रथ चक्र का भूमि में धसा हुआ।
जब धनुर्विद्या का मुझे विस्मरण हुआ।
तब बाण चलाया पार्थ ने,
तब इस मृत्युंजय ने मृत्यु का वरण किया।।
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