25 NOV 2017 AT 17:49

।।देख मुसाफ़िर।।

ज़ालिम ज़िन्दगी का जुल्म तो
देख ऐ मुसाफ़िर।
जाने कैसे कैसे दिन दिखाती है
पहले ज़ख्मो को देदे कर
बाद में मरहम लगती है।

दो पहर की ज़िन्दगी है ये ।
हर सुबह के पहले
काली रात दिखती है,
शाम की ठंढी पहर से पहले
दोपहर की तीखी धूप से जलती है।

इस बेवफा ज़िन्दगी को
तो देख ऐ मुसाफ़िर।
पहले घिसते पीटते जला जला कर
जाते जाते इंसान की हस्ती ही मिटा जाती है।

इसका अंत भी क्या खूब है ऐ मुसाफ़िर
जैसे बेवफ़ाई याद छोड़ जाती है।
वैसे ही जाते जाते ये राख छोड़ जाती है।।

- हर्षिता की कलम