कुछ लम्हें जो गुज़रे ख़ुद के साथ में,
मानों उमड़ा हो सैलाब तेज़ बरसात में,
ये शिक़ायत ख़ुद की ख़ुद से है,
मानों एक आयत अधूरी सी है,
लड़ा हूं जो ख़ुद ही से अकसर,
मानों है ये मरहम मेरे ज़ख्मों पर बेअसर,
नामंजूर है ज़रूर यूं बेरुखी नसीब की,
मानों जरूरत हो मेरे यकीन को रकीब की,
पाया ख़ुद को उलझा उन्हीं लम्हात में,
कुछ लम्हें जो गुज़रे ख़ुद के साथ में...
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