जब बयान करूँ शब्दों में तो अनसुनी हो जाती हूँ ना कहूँ कुछ और चुप्पी थामे रखूँ तो अहंकारी ख़ामोशी भी समझ लूँ और भावनाएँ भी लेकिन मेरा कहा सब व्यर्थ अगर रखूँ ख़्वाहिशें तो स्वार्थी मैं ना रखूँ अपेक्षाएँ तो अभिमानी उलझनों को समय दूँ तो लापरवाह मैं और अपने पक्ष की बात करूँ तो अनुमानी शब्दों का यह खेल खेलूँ तो अनाड़ी मैं और उनका कहा सब मान लूँ तो… समझदारी…