19 MAY 2018 AT 23:06

या तो मुझको जाने दे,
या फिर मुझको जीने दे...
यूं टुकड़ों-टुकड़ों में जीना,
अब अच्छा नहीं लगता...

कितने मौके, कितनी यादें...
कितने किस्से, कितनी बातें...
यूं कड़वाहट रोज़ ही पीना...
अब अच्छा नहीं लगता...

रात की तन्हाई, सुबह का क़रार...
इन चश्मों को चैन आये, जब हो तेरा दीदार...
यूं चाक जि़गर के सीना...
अब अच्छा नहीं लगता...

तुझे देखने की तलब, या यूं मिलने का सबब...
तुम मेरे लिए किसी सदफ़ जैसा, और मैं ठहरी एक सदक:
हाथ में मेरे, किसी और का हीना...
अब अच्छा नहीं लगता....

तू कभी बाराने रहमत, कभी बादे बहार सा...
मैं तुझ में ही कहीं खोई हुई, तू पूरा मुझमें क़ाबिज़ सा...
खुद से मुसालहत करना...
अब अच्छा नहीं लगता...

- Dronika