वहां एक नीम के पेड़ के नीचे,
जो एक छोटा सा घर है,
वहां मेरी एक ग़ज़ल रहती है,
वो जब बाल संवारती है,
मेरा काफ़िया संवरता है,
उस नरम घास पे पायल की छनछन,
कानों में घोलती हो मधु जैसे,
बारिश की बूंदों से कभी भीगे जो वो,
तितली की तरह उसका रंग निखरता है,
सर्द रातों की जादूगरी क्या कहूँ,
बन के शबनम माथे पे मोती चमकता है,
हर लफ्ज़ उस ग़ज़ल का,
इत्र में डूबा रहता है,
लय में गाता हूँ जब मैं उसे,
मेघ आकाश में बांसुरी बजाता है,
हर शेर उस ग़ज़ल का कातिल है,
खुद पढता हूँ, रोज़ मर जाता हूँ,
और कभी ख्वाबों में उसे पढ़ने के लिए,
उसी नीम के पेड़ के नीचे सो जाता हूँ,
उसी नीम के पेड़ के नीचे सो जाता हूँ,
A memory from 18 June, 2014...
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